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. भागवत पुराण (6/16/56) के अनुसार ज्ञान और ब्रह्म एक ही हैं। इस दृष्टि से 'ज्ञान' की आराधना ‘ब्रह्म' या परमात्मा की ही आराधना है। यह आराधना व्यक्ति को ज्ञान और विविध विद्याओं की प्राप्ति कराती है।
जैन परम्परा में आत्म-उपासना तो मान्य है ही, ज्ञानोपासना भी उसी में अन्तर्निहित मानी जाती है, क्योंकि आत्मा ज्ञानमय है। 'ज्ञान' आत्मा का शाश्वत-स्वभावभूत धर्म है। ज्ञान और आत्मादोनों अभिन्न हैं (प्रवचनसार-1/23-24)।इस दृष्टि से ज्ञान की आराधना आत्मोपासना ही है। इस वैचारिक पृष्ठभूमि में सरस्वती-उपासना का जैन परम्परा में प्रतिष्ठित होना असंगत नहीं ठहरता।
जैन इतिहास की दृष्टि से विचार करें तो आदि तीर्थंकर ऋषभदेव को ब्रह्मा-स्रष्टा-प्रजापति का रूप माना जाता है। उनकी दो पुत्रियों- ब्राह्मी व सुन्दरी को लेखन-कला, गणित-विद्या एवं विविध विद्याओं की प्रवर्तिका होने का श्रेय प्राप्त है (द्र. आवश्यक नियुक्ति- 212-21 3, त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरित-1/2/963, आदिपुराण-16/ 14/355)। उनके उक्त महान् सांस्कृतिक अवदान को दृष्टिगत रख कर कृतज्ञ समाज ने उन्हें बहुमान दिया- जो स्वाभाविक ही था। यह भी संभव है कि इसी भक्ति-भावना की पृष्ठभूमि में सरस्वती देवी की अवधारणा ने मूर्त रूप लिया हो। इस दृष्टि से अमरकोष में सरस्वती का ब्राह्मी नाम उल्लेखनीय है।
यह भी सम्भव है कि तीर्थंकर-सर्वज्ञ की वाणी को, उसके लोककल्याणकारी स्वरूप को दृष्टिगत रखकर, श्रुतदेवी' के रूप में प्रतिष्ठित किया हो, और वैदिक परम्परा के साथ समन्वय की प्रवृत्ति ने उसे 'सरस्वती' का रूप ग्रहण कराया हो। देश भक्तियों के रचनाकार आचार्य पूज्यपाद ने तीर्थंकर-भक्ति के साथ श्रुत-भक्ति की भी रचना कर ज्ञान देवी की आराधना ही की है।
जैन धर्म एकादिक धर्म की पाकतिक एका 98