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________________ जैन परम्परा में पूज्य देवों की कोटि में उक्त पांच परमेष्ठी देवों की ही गणना होती है । स्वर्गवासी देव व उनके इन्द्र आदि 'देव' शब्द से अभिहित तो होते हैं, किन्तु वे संसारी आत्माएं ही हैं जो संयम-साधना से दूर होती हैं, अतः पूज्यता की कोटि में नहीं आते। तीर्थंकर अर्हन्त देव के समक्ष स्वर्गीय देव, यहां तक कि उनके इन्द्र भी नतमस्तक रहते हैं और उनकी स्थिति सेवक, श्रद्धालु से अधिक ऊंची नहीं होती। उपर्युक्त समग्र निरूपण का सारांश यह है कि वैदिक व जैन-दोनों परम्पराएं विशुद्ध आत्म-तत्त्व की आराधना-उपासना में एकमत हैं। (5) ज्ञानदेवी सरस्वती की आराधना भारतीय संस्कृति में ज्ञान-विज्ञान की अधिष्ठात्री देवी 'सरस्वती' को विशिष्ट श्रद्धास्पद स्थान प्राप्त है और इसकी आराधना भक्ति-भावनापूर्वक की जाती है। __वैदिक परम्परा में सरस्वती को ब्रह्मा की पुत्री माना गया है (भागवत- 3/12/26, 28) जैन परम्परा में भी आदिप्रजापति ऋषभदेव की पुत्री ब्राह्मी व सुन्दरी को सरस्वती-तुल्य ज्ञान-विज्ञान की प्रवर्तिका माना जाता है (आदिपुराण- 16/14/355 आदि)।वैदिक परम्परा की शक्ति-उपासना पद्धति में परमशक्ति के 3 रूप माने जाते हैं। वे हैं(1) महाकाली, (2) महालक्ष्मी, (3) महासरस्वती। महाकाली को शारीरिक शक्ति की, महालक्ष्मी को भौतिक वैभव की तथा महासरस्वती को बौद्धिक प्रतिभा व समस्त विद्याओं की अधिष्ठात्री माना जाता है। इन तीनों में सरस्वती का स्थान महत्त्वपूर्ण है। सरस्वती देवी को शास्त्रों में आदिशक्ति, कमलासना, हंसवाहिनी, वीणा-पुस्तकधारिणी, शुक्लवर्णा आदि विशेषणों के माध्यम से वर्णित किया गया है जिनसे उसके सात्त्विक, मध्यस्थ, विवेचक, वीतराग व उदात्त स्वरूप का निदर्शन होता है। प्रथम 197
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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