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________________ (3) जैन उपासना/आराधना की पृष्ठभूमि जैन परम्परा में श्रद्धा व आस्था के प्रमुख केन्द्र अर्हन्त देव व तीर्थंकर रहे हैं। धर्म-जगत् में वे परमेश्वर व परमात्मा के रूप में प्रतिष्ठित रहे हैं। तीर्थंकरों ने धर्मोपदेश दिया कि सांसारिक दुःख व सुख के कारण व्यक्ति के बुरे या अच्छे कर्म होते हैं। उन कर्मों के चक्र को तोड़कर, सांसारिक आवागमन से मुक्त होते हुए परमानन्दमयी मुक्ति प्राप्त हो सकती है। मुक्ति का मार्ग है- सज्ज्ञानसमन्वित संयम व तप। इस मार्ग का अनुसरण कर, कोई भी जीव क्रमशः आध्यात्मिक उन्नति करता हुआ परमात्मा के स्वरूप को प्राप्त कर सकता है। उनके उपर्युक्त उपदेश की पृष्ठभूमि में उत्तरवाद की अवधारणा पुष्ट हुई। जैन परम्परा में समता का वीतरागता का अनुष्ठान 'धर्म' है और उक्त धर्म का साध्य है- पूर्ण वीतरागता या समता जो परमात्म-स्थिति का पर्याय होती है। इसी परमात्म-स्वरूपता को प्राप्त होने वाली आत्माएं ही जैन परम्परा में आराध्य व उपास्य मानी गईं हैं। प्रसिद्ध जैनाचार्य हेमचन्द्र का स्पष्ट उद्घोष हैन वीतरागात् परमस्ति दैवतम्। (अयोगव्यवच्छेदिका-28) अर्थात् 'वीतराग' के सिवा कोई अन्य देव (मान्य) नहीं है। किन्तु यह आराधना-उपासना व्यक्ति-पूजा नहीं, गुणपूजा के रूप में ही स्वीकार्य है। इसी दृष्टि से 'तत्त्वार्थ सूत्र' ग्रन्थ के मंगलाचरण में कहा गया-वन्दे तद्गुण-लब्धये, अर्थात् परमात्मा को हम इसलिए वन्दना करते हैं ताकि उनके गुणों व स्वरूप को हम प्राप्त करें। अर्हन्त देव व तीर्थंकर देव वीतरागता की साकार मूर्ति होते हैं, अतः जैन परम्परा इन्हें प्रमुख रूप से आराध्य व उपास्य मानती है। अर्हन्त देव ही ईश्वर, परमेश्वर या परमात्मा आदि विशेषणों से अलंकृत होते हैं। इनकी उपासना-आराधना 'वीतरागता' गुण की FHIH93
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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