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वहां 'आत्मा' व 'ब्रह्म' की एकता का भी प्रतिपादन दृष्टिगोचर होता है (द्र. मांडूक्योपनिषद् 6/1-2) | अग्नि, वरुण, इन्द्र आदि समस्त आधिदैविक शक्तियां उसी परमतत्त्व के अधीन या उसी के विविध स्वरूप हैं- यह भी प्रतिपादित किया गया है (द्र. मैत्रायणी उपनिषद् 5/1, बृहदारण्यक उपनिषद्. 5/15, श्वेताश्वतरोपनिषद् 4/13,15, 6/7,11 आदि)।
(2.) वैदिक परम्परा में भक्ति व अवतारवाद
भक्त हृदय ने निर्गुण परमात्म-तत्त्व को साकार व सगुण रूप प्रदान किया। भागवत पुराण में प्रतिपादित किया गया है कि यद्यपि परमात्मा निष्कल, अजन्मा, अविकारी, अकर्ता व निर्गुण है (द्र. भागवत-3/27/1,1/9/44,1/8/3,कोपनिषद् 1/3/15),तथापि भक्तों की भावनाओं के अनुरूप वह विविध रूप धारण करता है (द्र. भागवत- 3/28/29, 3/29/11)। इसी वैचारिक पृष्ठभूमि में वैदिक 'अवतारवाद' अधिकाधिक परिपुष्ट होता गया और विविध अवतारों का निरूपण वैदिक पुराणों में किया गया।
ईश्वर के अवतारों को भक्त जनों ने उपास्य व आराध्य कोटि में रखा। साथ ही, उनके पारिवारिक सदस्यों तथा अवतारों के सहयोगी भक्त जनों को भी देव रूप में प्रतिष्ठा मिली। फलस्वरूप, वैदिक देव-परिवार में ब्रह्मा, विष्णु, शिव, लक्ष्मी, गणेश, कार्तिकेय, सीता, हनुमान् आदि-आदि अनेक देव समाहित हुए।
लौकिक व्यवहार में आदरणीय 'ब्राह्मण' को 'भूदेव' कहा गया। सांस्कृतिक पुरोधाओं ने माता, पिता, आचार्य को 'देव' मानकर उनके प्रति बहुमान देने का भी निर्देश दिया (मातृदेवो भव, आचार्यदेवो भव, तैत्तिरीय उपनिषद् 1/11/2)।
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