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मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करना चाहिए । संन्यासी आसक्ति से रहित होकर केवल प्राणरक्षा के लिए कर्म करे । अत्यन्त लाभ और सम्मान से बचा रहे । उसे काम, क्रोध आदि को त्याग कर निर्मम हो जाना चाहिए।
जैन परम्परा में प्रशान्ति क्रिया, गृहत्याग क्रिया, दीक्षादृय क्रिया, जिनरूपता क्रिया आदि क्रियाएं वानप्रस्थ व संन्यास आश्रम जैसी जीवन-चर्या को अंगीकार करने से सम्बद्ध है । जैन पुराणकार के अनुसार, इन क्रियाओं का निरूपण इस प्रकार हैं:
(प्रशान्ति क्रियाः ) वह गृहस्थाचार्य अपनी गृहस्थी के भार समर्थ योग्य पुत्र को सौंप देता है और स्वयं उत्तम शान्ति का आश्रय लेता है । विषयों में आसक्त न होना, नित्य स्वाध्याय करने में तत्पर रहना तथा नाना प्रकार के उपवासादि करते रहना प्रशान्ति क्रिया कहलाती है ।
(गृहत्याग क्रियाः) गृहस्थाश्रम में स्वतः को कृतार्थ मानता हुआ, जब वह गृहत्याग करने के लिए उद्यत होता है, तब गृहत्याग क्रिया की विधि की जाती है। इस क्रिया में सर्वप्रथम सिद्ध भगवान् का पूजन कर समस्त इष्ट जनों को बुलाकर और उनकी पुनः साक्षीपूर्वक पुत्र के लिए सब कुछ सौंपकर करना होता है । गृहत्याग करते समय वह जेष्ठ पुत्र को बुलाकर कुलक्रमागत धर्म की परम्परा को निभाने का उपदेश देता है और निराकुल होकर दीक्षा ग्रहण करने के लिए अपना घर छोड़ देता है ।
(दीक्षाद्य क्रिया :) जो गृहत्यागी, सम्यक्द्रष्टा, प्रशान्त, गृहस्वामी तथा एकवस्त्रधारी होता है, उसके दीक्षाग्रहण करने के पूर्व जो आचरण किये जाते हैं, उन आचरणों या क्रियाओं के समूह को दीक्षाद्य क्रिया कहते हैं ।
निष्कर्षतः दोनों परम्पराओं के उपर्युक्त संस्कार अपने में अन्तर्निहित मूल भावनाओं की दृष्टि से पर्याप्त साम्य रखते हैं ।
प्रथम खण्ड 89