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(4) निष्क्रमण-अन्नप्राशन व बहिर्यान क्रिया
वैदिक परम्परा के दो संस्कार हैं- निष्क्रमण संस्कार एवं अन्नप्राशन संस्कार।जन्म से बारहवें दिन नवजात शिशु को प्रसूतिकागृह से बाहर लाया जाता है। छठे मास में स्वर्णशलाका से बालक को मधु व घृत का प्राशन कराया जाता है।
जैन परम्परा में बहिर्यान क्रिया, निषद्या क्रिया या अन्नप्राशन क्रिया-ये क्रमिक विधान माने गये हैं। बहिर्यान क्रिया में सन्तानजन्म के 2-4 मास बाद, शिशु को प्रसूतिगृह से बाहर ले जाते हैं। निषद्या क्रिया में सन्तान को मंगलकारी आसन पर बैठाया जाता है। इसमें बालक के लिए भावी जीवन में उच्च पद पर प्रतिष्ठित होने की कामना निहित होती है। अन्नप्राशन क्रिया जन्म से 7-8 मास बाद की जाती है। वैदिक परम्परा की तरह ही इसमें बालक को अन्न खिलाया जाता है।
. (5) चूड़ा कर्म संस्कार व केशवाप क्रिया
वैदिक परम्परा में, बच्चे के जन्म से तीसरे वर्ष में चूडाकर्म संस्कार का विधान है। अन्य स्मृतिकार के मत में इसे 5 वें , छठे या 8 वें वर्ष में भी कर सकते हैं। इसमें बच्चे के बाल उतारे जाते हैं। जैन परम्परा की केशवाप क्रिया में भी बच्चे का मुण्डन कराया जाता है। इस प्रकार दोनों परम्पराओं में एक जैसा मनाया जाने वाला यह संस्कार है।
(6) उपनयन व लिपिसंख्यान क्रिया
वैदिक परम्परा का उपनयन संस्कार जन्म से 8 वें वर्ष से लेकर बारहवें वर्ष तक किया जाता है। बालक को शिक्षा हेतु गुरु के समीप ले जाया जाता है- यही उसका 'उपनयन' है। इसे यज्ञोपवीत संस्कार भी कहा जाता है। वस्तुतः इस संस्कार से
न धर्म मा दिशाम को सारत ,662