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________________ (प्रणव-महत्ता :-) ओंकार या प्रणव को परब्रह्म का वाचक या प्रतीक माना गया है (ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म- गीता 8/13, ओमिति ब्रह्मणो योनिःमहाभारत- 12/268/35)। परब्रह्म आत्मा यदि लक्ष्य है तो प्रणव धनुष व आत्मा बाण है (मुंडकोपनिषद्- 2/2/4, भागवत- 7/15/42)। इस प्रणव के पाद (चरण) हैं- अ, उ तथा म् (मांडूक्योपनिषद्- 8)। जैन धार्मिक कृत्यों में भी ओंकार को अतिविशिष्ट सम्मान व महत्त्व दिया जाता है । जैन परम्परा में निम्नलिखित मंगलाचरण बोला जाता है जिसमें ओंकार को अभीष्ट फल का प्रदाता तथा मोक्षदायक भी कहा जाता है: - ओंकारं बिन्दुसंयुक्तं नित्यं ध्यायन्ति योगिनः । कामदं मोक्षदं चैव, ओंकाराय नमो नमः॥ इसे पंच परमेष्ठियों का समष्टि-वाचक महामन्त्र माना जाता है। अर्हन्त का वाचक 'अ', अशरीरी सिद्ध का वाचक 'अ', आचार्य का वाचक आ, उपाध्याय का वाचक 'उ', साधु का वाचक 'म्'इस प्रकार पांचों को जोड़कर (सन्धि करने पर-अ+अ+आ+उ+म्) 'ओंकार' बना है। इसी आशय की एक प्राकृत गाथा जैन साहित्य में प्राप्त होती है : अरिहंता असरीरा आयरिया तह उवज्झाया। मुणिणो पढमक्खरणिप्पण्णो ओंकारो पंच परमेट्ठी ॥ (बृहद्रव्यसंग्रह- 49 पर ब्रह्मदेव-कृत वृत्ति) ध्यान-साधना में पदस्थ ध्यान की प्रक्रिया के अन्तर्गत भी 'ओंकार' का विशिष्ट स्थान रहा है (द्र. बृहद् द्रव्यसंग्रह-49, ज्ञानार्णव35/34,87)। नोदिक धर्म की REAL 80
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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