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इस प्रकार पूर्ण स्वस्तिक संसार और मोक्ष का प्रतीक है। वह निर्ग्रन्थ श्रमण तीर्थंकरों द्वारा प्रतिपादित धर्मतत्त्व तथा उसके स्वरूप, हेतु और लक्ष्य के रहस्य का द्योतक है। वह कल्याणप्रद, कल्याणस्वरूप तथा परममंगल है अतः शाश्वत और अनादि-निधन है।
वस्तुतः प्रसिद्ध पुरातत्त्ववेत्ता जनरल कनिंघम ने अपनी पुस्तक Coins of Ancient India में पृ.11 पर तथा सर मोनियरविलियम्स ने भी अपनी Sanskrit-English Dictionary द्वि. सं. में पृ.1 283 पर स्वस्तिक को मौर्यकालीन ब्राह्मी लिपि के 'सु' और 'अस्ति' अक्षरों के संयोग से बना बताया है, जिससे वह 'स्वस्ति' (कल्याण या मंगल) शब्द का वाचक प्रतीत बन गया। ब्राह्मी लिपि के जो उपलब्ध नमूने मिलते हैं, उससे सहस्रों वर्ष पूर्व की सिन्धुघाटी सभ्यता के अवशेषों में स्वस्तिक का प्रयोग प्राप्त होता है। वहां अनेक मृण्मुद्राओं पर अंकन ही नहीं, वहां नगरों की सड़कें भी स्वस्तिकाकार थीं। कुछ जैनेतर विद्वान् इसे सूर्य का प्रतीक, तो कुछ विष्णु भगवान् के सुदर्शन चक्र का प्रतीक बताते हैं।
कुछ विद्वान् उसका मूल प्राचीन यूनानी क्रॉस में या मिश्र अथवा माल्टा में प्रचलित क्रॉस में खोजते हैं, कुछ इसे ईसा की सलीब का प्रतीक बताते हैं। किन्हीं का मत है कि यह सर्प-मिथुन का द्योतक है।, जो प्रजनन या सृष्टि की आदिम परिकल्पना का प्रतीक है। कुछ विद्वान् इसे ब्राह्मी लिपि के 'ऋ' अक्षर से बना, अतएव भगवान् ऋषभदेव का द्योतक मानते हैं।
(3) शंखः
वैदिक परम्परा के महाभारत (5/4/1-11) में शंख को मांगलिक चिह्न माना गया है। भगवान् विष्णु को शंख-चक्र आदि का धारण करने वाला वर्णित किया गया है (भागवत- 4/24/48)। शंख विजय का सूचक है। महाभारत में सेनापति व महान् योद्धाओं के अपने-अपने विशिष्ट शंख थे। जैसे- श्रीकृष्ण का पाञ्चजन्य, अर्जुन
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