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तुम जीते रहो हम मरें नही, दःख किसीको ना होवे । जोडी शाश्वती सदा बनीरहे, कोडी मात्र नहीं धन खोवें। ऐसा सवाल मर्मका सेठ मुण, सेठाणीसे कहे तारे ॥ल. ॥२१॥ कहना तो यह सहज है सुन्दर, करती वक्त मुशकिल भारी । कालका जोरतो जब मिटेगा, छोडेंगे सागर संसारी ॥ इसका उपाव जिणेश्वरका मारग, हम लेवें संजम धारी। शिव पाटणमें जाय बिराजें, जहां नहीं काल करारी । जो तुम्हारकों अम्मर होनातो, आजावो संग हमारे॥ ल. ॥ २२॥ आठ भामा करजोडी बोले, जन्म मरणेसे हम डरती। जो रस्ता आप धारण करोगे, वोही धारण हम करती ॥ ऐसा विचार हुवा सबीका, सासण देवीका अंग फरका । ओग्न मुपती वस्त्र पात्र, नवी जणोंका वहां रख्खा ॥ सेठ स्वयमेव लोचन करके, धारलिया संजम भारेल.॥२३॥ फिर दो चोक भामनी लोचकर, आरज्यांका भेष, पेहर लिया। लक्ष्मी ऋषिजी अपने मुखसे, आठोंको पंच महाव्रत दिया। आठों जणीको साथ लेके, आप आगे पग उठाया। . अपूर्व श्रेणी चडे मुनीवरजी, घनघाती कर्म क्षपाया ॥ अपडवाइ अतीही निर्मल, केवल ज्ञान उपज्या ज्यारे॥ ल.॥२४॥ मासणके अनुरानी देवता, केवल मौच करने आया ।