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जय २ कार होरहा गगनमें. नृपादी देख अश्चर्य पाया ॥ ह्यां किसीने दान दिया नहीं, ना कोइ किसने केवल लिया। किस कारण सुर मौत्सब करते, ऐसा दिलमें अचंभा भया । इत्नोमें तो मेहल भीतरसे, लक्ष्मी ऋषिजी पधारे॥ल.॥२५॥ देख साधूका भेष सबी लोक, समजे यह केवल धारी। राजादिक सक करी वंदणा, बेठे सिंघासण अणगारी ॥ सबी लोक दिल्ल हर्ष अचंभा, आ बेठे जिनके सामें। सुरनरकी वहाँ भरी परषदा. मुनीवर अवसर जद पामें ॥ संसार सागर तारण कारण उपदेश इणीपरे उच्चारेल.॥२६॥ अहो ! भव्य लोक अपार संसारमें, मुशकिल है नरदेह पायो । दश दृष्टीत दश बोल दुर्लभ, मिल्या इसका लेलो लहावो ॥ तन धन कन जन संतती संपती, अनित्य सबी छेडके जाना। तप संयम ज्ञान ध्यान कियेसे, मिलता अवीछल ठिकाणा ॥ इसी बातका उद्यम करो सब, यह हमारा कहनारे।ल.॥२७॥ सुण उपदेश केवल ज्ञानीका, अष्टोत्तर शत गुमास्तारे । छोड संसारकी ममत्व जालको, लीना जिन संयम भारे । केइने श्रावक व्रत धारण किया, केइने समकित धारलीवी ॥ पीछे सोलेसे सेठाणी. मुमास्ताणीको दिक्षा दिवी। सबी मिलके जिन पदमें विचरे. किया बहुतसा उपकारेल.॥२८॥