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होगा, बुद्धि कांति आयुष्य आखिरपर्यंत कायम रखनेका एक सच्चा उपाय यही है, जो विषयोपभोग में मशगुल बनकर एक इस ही को सच्चा सुख मान कर बैठे हैं, वर्यिका स्वरक्षण करते नहीं हैं वे शारीरिक संपत्तिका, बुद्धिका, कांतिका नाश करके गरमी, सुजाक, प्रमेह वगैरा दुष्ट रोगों के फन्दे में फंसकर अतिदुःखसे व्याकुल बनकर अकालमृत्युको प्राप्त होते हैं, इसलिए ही यह कामरूप शत्रु बडा ही भयंकर है, इसके फंदे में फंसनेवाले आत्मघाती होते हैं और ब्रह्मचर्य पालनेवाले स्वात्मके रक्षक हो धर्मात्मा होते हैं ।
२ क्रोध - इस शत्रुको शास्त्रमें ज्वाला [अग्नि] की उपमा दी है, जिस प्रकार अग्नि के प्रसंगसे वस्तुका नाश होजाता है तैसे ही जहां क्रोधाग्नि प्रज्वलित होती है वहां दया, क्षमा, शील, संतोष, प्रेम, भक्ति, विनय, तप, संयम, समाधि वगैरे सद्गुण भस्म होकर जिसका प्रभाव शरीरपर पडने से मनुष्य सुरूपका कुरूप, सद्गुणीका दुर्गुणी,