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ऊपर जो षट् जीवकायकी रक्षा करनेको कहा है वह देखने में तो परात्माकी रक्षा दिखती है परंतु आंतरिक ज्ञानचक्षुसे विचार किया जाय तो स्वात्मा की ही रक्षा है, क्यों कि कर्मोंका नियम है कि उनसे भोगे विना कदापि छुटकारा नहीं मिल सकता अपन दूसरेको दुःख देंगे तथा मारेंगे तो उसका बदला उस ही प्रकार इस जन्ममें तथा आगेके जन्म में आत्माको अवश्य ही भोगना पडेगा, उसे ही आत्मघात कहते हैं, और जो किसीको दुःख नहीं देता है मारता नहीं है तो उसको भी कोई दुःख देने तथा मारने में समर्थ नहीं है, इसे ही आत्माकी रक्षाआत्मदयाकी कहना, इसलिए परात्माकी रक्षा करने वाले अपनी आत्माकी ही रक्षा करते हैं ऐसा समझना। षड्रिपु जीतनेका बोध
और भी स्वात्माकी घात करानेवाले अनादि कालसे आत्मा के साथ ही में रहे षड्रिपु - काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर है इनका नाश करना उसे भी स्वात्माकी दया करना ही कहा जाता है ।