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श्रीभिक्षुमहाकाव्यम् १४०. शीलं हि नो स्वीकृतमेव किन्तु, शिवश्रियाः पट्टकमात्तमाभ्याम् ।
उद्यधुवत्वाब्धितरत्तरङ्गभङ्गेषु रङ्गान्निहिता स्वमुद्रा । . उस दम्पती ने ब्रह्मवत ही स्वीकृत नहीं किया, पर मानो उन दोनों ने मुक्ति का प्रमाणपत्र ही प्राप्त कर लिया और उत्ताल यौवन के समुद्र की चंचल तरङ्गों पर अपना आधिपत्य भी जमा लिया।
१४१. संविग्नतेयं नवदुतिकेव, सम्प्रेरयन्ती प्रति मौनमिज्यम् ।
तयोस्तदर्थं सुकृतस्य गोष्ठी, सम्पादयित्री प्रविनष्टपापा ॥ __ वह निर्मल सविग्नता (विरागता) नवदूति का रूप धारण कर उन्हें संयम के लिए प्रेरित करती हुई उन दोनों के बीच धार्मिक गोष्ठी का बारबार समायोजन कराने लगी।
१४२. अर्थाय कामाय विनश्वराय, विचारधारा सततप्रवाहा ।
न चान्यपौमर्थ्यकृते कदापि, तदा च सा पन्नगलोकक: ॥
अर्थ और काम-इन दो विनश्वर पुरुषार्थों के लिए सतत चर्चाएं चलती रहती हैं, किन्तु धर्म और मोक्ष-इन दो पुरुषार्थों के लिए कभी चर्चाएं नहीं होतीं। अर्थ और काम की चर्चाएं नरकलोक में ले जाने वाली होती हैं।
१४३. अर्थार्जनाधीः सुकृतार्जनाधीविवादसक्ता इव वर्द्धमाना ।
जेत्री द्वितीया शुभसंयमाय, बभूव सज्जोऽर्जुनवद् रणे यः ।। . (संभव है पत्नी ने अर्थोपार्जन पर और भिक्षु ने धर्मोपार्जन पर बल दिया हो) तब अर्थार्जन और धर्मार्जन की दोनों बुद्धियां विवादग्रस्त हुईं। विवाद बढा । अन्त में धर्मोपाजिका मति की ही विजय हुई। तब भिक्षु संयम के लिए वैसे ही सज्ज हो गए जैसे अर्जुन युद्ध के लिए।
१४४. ज्ञप्रज्ञयाक्रान्तविरक्तिबुद्धिनिरस्तसंसारनिवासभावः । । - प्रोवाच पत्नी स्फुटबोधवाण्या, वाञ्छामि दीक्षां सुसमीक्षिताङ्गाम् ।।
भिक्ष ज्ञप्रज्ञा और प्रत्याख्यान प्रज्ञा से सन्निहित विरक्ति युक्त थे। वे गार्हस्थ्य जीवन से दूर हो चुके थे। उन्होंने पत्नी को प्रतिबोध देने के लिए स्पष्ट वाणी में कहा-'प्रिये ! अब मैं सुसमीक्षित दीक्षा स्वीकार करना चाहता हूं।'
१. मौनमिज्यम् -संयमरूपी यज्ञ ।