________________
द्वितीयः सर्गः
७१
१४५. पित्रोः प्रदत्तामुपलक्ष्य किञ्चित्, सार्थी मदीयां वितनोमि संज्ञाम् ।
यत्स्थापनावद्धि न नाममात्रात्, सिद्धिर्न निक्षेपविविक्ततत्वात् । ___ 'प्रिये ! पिताश्री ने सोच-समझकर ही मेरा नाम 'भिक्षु' रखा होगा । अतः मैं उस नाम को सार्थक करना चाहता हूं, पर उसकी सार्थकता केवल स्थापनानिक्षेप की भांति नाम मात्र से नहीं हो सकती। उसकी सार्थकता तभी है जब मैं भावभिक्षु बनूं ।'
१४६. समिणित्वं पुनरात्मवत्त्वं, तद् द्वयर्थसिद्धि युगपद् विलोक्य ।
अवाङ्मुखी सा कुशला कथं स्यात्, द्रुतं तदाकूतवशंवदाऽभूत् ॥
तब भिक्षु की कुशल पत्नी सहधर्मिणीपन तथा आत्मवत्व-- इन दोनों की युगपत् सिद्धि देखकर उनसे विमुख कैसे होती ? वह तत्काल ही भिक्षु की अभिलाषा के वशवर्ती हो गई, दीक्षा के लिए तैयार हो गई।
श्रीनाभेयजिनेन्द्रकारमकारोद् धर्मप्रतिष्ठा पुनर्यः सत्याग्रहणाग्रही सहनयैराचार्यभिक्षुर्महान् । तत्सिद्धान्तरतेन चारुरचिते श्रीनत्थमल्लषिणा, श्रीमद्भिक्षुमुनीश्वरस्य चरिते सर्गो द्वितीयोऽभवत् ॥
श्रीनत्थमल्लर्षिणा विरचिते श्रीभिक्षुमहाकाव्ये भिक्षुविवाह-गुर्वन्वेषण-ब्रह्मचर्यादाननामा
द्वितीयः सर्गः।