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द्वितीयः सर्गः
१३५. एकान्तकल्याणकृते धृतं सत्, व्रतं व्रतं तन्न ततोऽतिरिक्तम् ।
अनात्मदृष्ट्याऽऽचरितं तथाऽऽप्तधर्माय नाऽसंयमपोषकत्वात् ।। _ 'एकांत आत्म-कल्याण की दृष्टि से स्वीकृत व्रत ही व्रत कहलाता है, दूसरा नहीं । अनात्मदृष्टि से आचरित ब्रत आत्म-कल्याण के लिए नहीं होता। वह असंयम का पोषक होता है ।'
१३६. अतो निजात्मोद्धतये सदैव, वहेव विस्फूजितमूजितं तत् ।
विरज्य भोगादनुरज्य तत्त्वे, मदुक्तवाक्यं सफलं कुरुष्व ॥
'यह ब्रह्मचर्य व्रत सरिता की भांति निर्मल, सतत प्रवहमान और शक्तिशाली है। इसे केवल आत्मा के उद्धार के लिए ही स्वीकार करना है। प्रिये ! भोगों से विरक्त और तत्त्वों में अनुरक्त होकर तुम मेरी भावना को सफल करो।'
१३७. तदा चरित्राधिपतेर्मुगाक्षी', सर्वं तदुक्तं प्रतिपद्यते स्म ।
स्वातिग्रहे शारदमेघबिन्दुमनाविलं' सागरशुक्तिकेव ॥
तब चरित्रनायक भिक्षु की पत्नी ने उनके द्वारा कही हुई सारी बातें वैसे ही स्वीकार कर ली जैसे स्वाति नक्षत्र में शारदीयमेघ की पवित्र बूंद को समुद्र की सीप स्वीकार करती है।
१३८. क्वोत्तालफालस्तरुणत्वबालः, क्व ब्रह्मचर्यं परमं प्रशान्तम् ।
क्व यौवनारम्भ उदग्रदम्भः, क्वेदं च सारल्यसुधांशुबिम्बम् ।।
अहो ! कहां तो उछलकूद करने वाला नवयौवन और कहां यह परम उपशांत ब्रह्मवत ? कहां तो प्रचंड दांभिक यौवन का आरम्भ और कहां निर्मल चन्द्रमा का बिंब ब्रह्मचर्य !
१३९. तथापि तस्मिन्नविलोमलोमसमग्रसामग्रययुते युवत्वे ।
आजन्मशीलं विमलं सलीलं, जायापतिभ्यां समुपावदे तत् ।
फिर भी उस दम्पती ने समस्त भोगानुकूल सामग्री के होते हुए भी युवावस्था में ही आजीवन विमल ब्रह्मचर्य व्रत स्वीकार कर लिया।
१. वहा–नदी (सिन्धुः सैवलिनी वहा च...... अभि० ४।१४६) २. मृगाक्षी-स्त्री। ३. अनाविलं-निर्मल (विमलं. "मवदातमनाविलं-अभि० ६७२) ४, जायापतिः-पति-पत्नी।