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________________ श्री भिक्षु महाकाव्यम् १३०. अधः कृतात्मीयविवेकवाणि !, बुध्यस्व बुध्यस्व ततो ह्यमुष्मात् । निरामयापायनिकायकायाज्जिनेन्द्रधमं प्रतिदध्वऽद्य ॥ ६८ 'आत्मविवेक से सरस्वती को भी जीतने वाली भद्रे ! तुम जागो जागो, जब तक यह भौतिक शरीर व्याधियों से अभिभूत न हो, उससे J पहले ही हमें जिनेश्वरदेव के धर्म - चारित्र को स्वीकार कर लेना चहिए ।' १३१. निर्यात्यनायासविकाशितायां यत्केवलायां सुविलासितायाम् । निमीलिताक्षं सकलं समूच्र्छ, दाम्पत्यमित्थं किमु तत् प्रशस्तम् || 'बिना किसी परिश्रम के सहज रूप से मिले हुए इस दिव्य दाम्पत्य जीवन को आंखें मूंदकर केवल ऐहिक विलासिता में ही मूच्छित होकर खपा देना कहां तक प्रशस्त हो सकता है ? ' १३२. सुरासुरानन्तसमृद्धभोगा, भुक्ता न तृप्तास्तत ऐहिकैः किम् । जाता वितृष्णा न सुधाब्धिपूरैः, कथं तदा दर्भशिरः पृषद्भिः || 'प्रिये ! इस जीव ने देवों के अनन्त दिव्य भोगों का उपभोग किया, फिर भी आत्मतोष नहीं हुआ। अब ऐहिक तुच्छ भोगों से तो होना ही क्या है ? जो समुद्र के अनन्त पानी से भी तृप्त नहीं हुआ, वह दर्भ के अग्रभाग पर टिके हुए पानी की बूंदों से कैसे तृप्त हो सकता है ?" विजयाजयाभ्यामेकत्रशय्यामधिशायकाभ्याम् । आजन्म ब्रह्माचरणं सुचीर्णमद्याऽपि तद् विश्वमुखं पुनाति ॥ १३३ . यद्दम्पतिभ्यां 'एक ही शय्या में शयन करते हुए भी विजय सेठ और विजया सेठानी आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत का सफलता पूर्वक पालन किया । आज भी उनके दाम्पत्यजीवन की पवित्रता जन-जन के मुख पर मुखरित है ।' १३४. तज्जम्पतित्वं प्रभवेत् कदा नौ, मंस्यावहे साधुदिनं तदात्वम् । न ब्रह्मचर्यात् परमोऽस्ति धर्मो, न ब्रह्मचर्यादपरञ्च शर्म ॥ 'वही दिन अपने लिए सर्वश्रेष्ठ दिन होगा जब हमारा दाम्पत्य जीवन भी वैसा ही बनेगा । इस विश्व में ब्रह्मचर्य से बढ़कर कोई धर्म नहीं है और ब्रह्मचर्य से अन्य कोई सुख नहीं है ।' १. जम्पती - दम्पती, पति-पत्नी ( जम्पती दम्पती - अभि० ३।१८३) •
SR No.006278
Book TitleBhikshu Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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