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द्वितीयः सर्गः
१२६. प्राणेश्वरि ! प्रेमसहस्रपाशैस्तथैव नो त्वामवितुं क्षमोऽहम् । स्वयं विनश्यन् मुदिरोऽनुगां तां गोपायितुं कि चपला' समर्थः ? ॥ 'हे प्रिये ! क्या स्वयं विनष्ट होने वाला मेघ अपने पीछे चलने वाली विद्युत की रक्षा कर सकता है ? ठीक वैसे ही तेरे प्रेम के सहस्र बंधनों से बंधा हुआ मैं भी मृत्यु से तेरी रक्षा करने में समर्थ नहीं हो सकता ।'
१२७. वार्द्धक्यजन्मप्रमयामयाधिबाधासपत्राकृति पूर्ण विश्वे' ।
निमेषमात्रं क्व सुखं सुखाशा, मारीचिकाम्भः परतो न काचित् ॥
'हे भद्रे ! यह संपूर्ण विश्व वार्धक्य, जन्म-मरण, रोग, आधि और व्याधि तथा अन्य तीव्र पीड़ाओं से पीड़ित है। इसमें निमेषमात्र भी सुख कहां ? फिर भी यहां सुख की कल्पना करना मरु-मरीचिका के जल से प्यास gora से अधिक नहीं है ।'
१२८. सौदामिनी सन्निभदृष्टनष्टा, या यौवनश्रीः श्रयदातारा ।
आयुर्ध्वजच्चूल 'चलं चला श्रीविपद्विषक्तेहिकसम्पदाली ॥
'जिस यौवनश्री के तारे आकाश में लगे हुए हैं वह भी विद्युत् के समान क्षणभंगुर ही है । यह आयु भी उड़ती हुई ध्वजा के ऊपरीभाग के समान अस्थिर है | लक्ष्मी चञ्चल है और ये समस्त ऐहिक विभूतियां विपदाओं के भण्डार हैं ।'
१२९. बहुपचारैः रुचिरैरतीवसत्कारितोप्येष न सत्क्रियेत ।
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विकारमायाति यदा तदाऽयं, कायोऽस्मदीयः खलवत् सदैव ॥
'अयि प्रणयिनी ! जैसे दुष्ट मनुष्य किये गए उपकार का बदला अपकारों से ही चुकाता है, वैसे ही अत्यधिक सत्कृत होने वाला अपना यह शरीर सत्कार का बदला सदा विकारों से ही चुकाता है, जब-तब रोगग्रस्त या विकृत होकर ही चुकाता है ।'
१. चपला - विद्युत् ( चञ्चला चपलाऽशनि :- अभि० ४।१७१ ) २. प्रमय:- वध ( व्यापादनं विशरणं प्रमय : – अभि० ३।३४) आमयः - रोग (आम आमय आकल्यं - अभि० ३।१२७) आधि: - मानसिक व्यथा ( स्यादाधिः मानसीव्यथा - अभि० ६/७ ) सपत्राकृतिः - अत्यधिक पीड़ा ( सपत्राकृतिनिष्पत्राकृती त्वत्यन्तपीडने - अभि० ६८ )
३. मरीचिका -- मृगतृष्णा ( मरीचिका मृगतृष्णा - अभि० २१५ ) ४. सौदामिनी - विद्युत् ( सौदामिनी क्षणिका च - अभि० ४।१७१)
५. उच्चूलः – ध्वजा का ऊपरी भाग (अभि० ३ | ४१४ )
६. आलिः - श्रेणी (मालाल्यावलिपंक्तयः - अभि० ६।५९ )