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श्रीभिक्षुमहाकाव्यम्
... भिक्षु ने रघुनाथजी से भिन्न उत्तम आचार्य को पहले नहीं देखा था, इसलिए व्यवहारदृष्टि से रघुनाथजी को श्रेष्ठ माना। रत्नपरीक्षा में अनिपुण व्यक्ति क्या चमकते हुए कांच में जल्दबाजी से वैडूर्यमणि की कल्पना नहीं कर लेता ?
१२२. आबद्धमूलोऽत्र गुरुत्वभावो, वैरङ्गिको बोधयति स्वपत्नीम् ।
असारसंसारविहार एष, सरित्प्रवाहप्रतिमोऽस्ति कान्ते ! ॥
दीपाङ्गज भिक्षु ने भी रघुनाथजी को गुरु के रूप में स्वीकार कर लिया तथा साथ ही दीक्षा की तीव्र उत्कंठा से प्रेरित हो अपनी पत्नी को प्रतिबोध देते हुए कहा--'कांते ! यह संसार का आवास असार एवं सरित्प्रवाह के समान अस्थिर है।''
१२३. सम्बन्ध एष प्रतिबन्ध एव, को वा पति: का दयिता दयार्दा ।
पचेलिमाऽरालकराल कर्मोदये सहायो नहि कोऽपि कस्य ।
'यह भौतिक सम्बन्ध भी एक प्रतिबंध ही है । कौन किसका पति और कौन किसकी दयालु पत्नी ? जब परिपक्व, कुटिल और भथंकर कर्मों का उदय होगा, तब कोई किसी का सहयोगी नहीं बन सकेगा।' १२४. भुजङ्गभोगायित कामभोगान्, रोगानिमान् विद्धि विबद्धशोकान् ।
एतत्पिपासा हि समस्तदुःखमेतदविरक्तिः परिपूर्णसौख्यम् ॥
'कांते ! बिषधर के भयंकर फन के समान भय उत्पन्न करने वाले ये भौतिक कामभोग महारोग एवं शोक को ही पनपाने वाले हैं। इनकी लालसा ही समस्त दुःखों का मूल है और इनकी विरक्ति ही परिपूर्ण सुख है।' १२५. लीलावति ! त्वल्ललिताभिलीला, मां रक्षयित्री किमु मृत्युकाले ।
याम्य प्रवातोद्धतवारिवाहं, त्रातुं क्षमा नो जलवालिका ऽपि ॥
'अयि लीलावति ! दक्षिण दिशा की उद्धत वायु से बिखरते हुए बादलों की रक्षा जैसे चमकती हुई बिजली नहीं कर सकती वैसे ही क्या मृत्युकाल में तेरी यह ललित लीला मेरी रक्षा कर सकेगी ?' १. प्रतिमः-सदृश (प्रतिमो निभः-अभि० ६१९८) २. पचेलिमं-परिपक्व । अरालं-कुटिल (वृजिनं भंगुरं भुग्नमरालं__ अभि० ६।९३)। करालं-भयंकर । ३ भोगः-सांप का फन (दर्वी भोगः फटः स्फट:-अभि० ४।३८१) ४. याम्य:-दक्षिण दिशा ५. जलवालिका-विद्युत् (सौदामनी क्षणिका च ह्रादिनी जलवालिका
अभि० ४।१७१)