________________
द्वितीयः सर्गः
इसके बाद भगवान् के शुद्ध मार्गरूपी सूर्य का कभी उदय और कभी अनुदय होता रहा है। यदि कभी कोई भावितात्मा अनगार प्रकट होता तो भी धूमकेतु के तीक्ष्ण कटाक्ष उसे सहन नहीं कर सकते थे।
११७. तदीयनिर्ग्रन्थपरम्परायां, यूथाधिनाथो रघनाथनामा ।
विशालकीत्तिः सुविशालसम्पदाचार्यमौलीमुकुटोपमानः ।।
उनकी निर्ग्रन्थ परम्परा में होने वाले आचार्यों में मुकुटोपम, विशाल कीर्ति और विशाल सम्पदा को धारण करने वाले रघुनाथजी नामक आचार्य हुए।
११८. तत्सम्प्रदायेषु विवर्तमानाः, परःशता: स्युर्मुनयोऽपि साध्व्यः ।
श्राद्धा: कियन्तो गणितुं ह्यशक्यास्ततः परार्यो' रघुनाथसूरिः ।।
सैकड़ों साधु-साध्वियों एवं अगणित श्रावक-श्राविकाओं से सम्प्रदाय उस सयय बहुत ही बढ़ा-चढ़ा हुआ था और रघुनाथजी उस समय उस सम्प्रदाय के सर्वेसर्वा थे ।
११९. निशम्य तं कर्णपरम्पराभिर्दीपाङ्गजोऽन्वेषक एष सम्यक् ।
तदीयसम्पर्कपरायणोऽभूत्, कि नो प्रवासं भजते धनार्थी ?॥
तब चरित्र-नायक भिक्षु ने लोगों से इस सम्प्रदाय की प्रशंसा सुनी और अन्वेषण करने पर उसे सम्यक् पाया । अब वे उस सम्प्रदाय के साथ सम्पर्क करने में तत्पर हुए। क्या धनार्थी व्यक्ति प्रवास में प्रस्थित नहीं होता?
१२०. सुधाकिरं साधुगिरं निशम्य, वैराग्यवृद्धिद्विगुणा विवृद्धा ।
किं नो शरच्चन्द्रसुराश'वृष्ट्या, क्षीराब्धिवेला विपुलोच्छिता स्यात् ॥
मुनियों की सुधारस के समान सुमधुर देशना का श्रवण करने से आपकी वैराग्य भावना वैसे ही दुगुनी बढ़ गई जैसे शरच्चंद्र की अमृतमयवृष्टि से क्षीर समुद्र की वेला अत्यधिक ऊंची हो जाती है।
१२१. अदृष्टभिन्नोत्तम एष एतं, मेने वरेण्यं व्यवहारदृष्ट्या ।
ससम्भ्रमोऽलब्धविशिष्टबोधो, वैडूर्यबुद्धिर्न किमंशुकाचे ॥ १. परायः - प्रधान (प्रष्ठपराय॑पराणि""अभि० ६७५) २. सुराशः-अशनं अशः, सुराणां अशनं सुराश:-अमृतम् ।