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________________ ६४ श्रीभिक्षुमहाकाव्यम् दीक्षा ग्रहण करने के बाद महान् शक्तिशाली लूंका ने जैन धर्म का अहिंसक साधनों से प्रचार करने के लिए तथा भव्य प्राणियों का संसार समुद्र से उद्धार करने के लिए ही दो-दो साधुओं का एक एक टोला बनाया। ११२. बावीसटोला इति लोकवाण्यां, ख्याताः क्षितौ स्वान्यशिवार्थसिद्धय । परोग्रकष्टैर्न कदापि खिन्नो, लुंकाभिधानः श्रमणेश्वरः सः ॥ दो-दो साधुओं का एक एक टोला हो जाने से बावीस टोले बन गये । अतः लोकभाषा में 'बावीस टोला' इस नाम से ये प्रसिद्ध हुए। स्व-पर कल्याण के लिए तत्पर आचार्य लूका साधनागत अत्यधिक उग्र कष्टों से भी कभी खिन्न नहीं हुए। ११३. मानप्रतिष्ठानिजपोल्लवीथीप्रोद्घाटनं वीक्ष्य निजार्थहानिम् । विषप्रयोगात् त्रिदिवं कुदाग्भिः, सम्प्रेषितः सः श्रुतिरीदृशीयम् ॥ ऐसी भी किंवदन्ती सुनने में आती है कि उन दुष्ट शिथिलाचारियों ने अपने शिथिलाचार के प्रकट हो जाने और अपनी मान, प्रतिष्ठा तथा स्वार्थ की हानि हो जाने के भय से उस लूका मेहता को विष-प्रयोग से मार दिया या मरवा दिया। ११४. केषां मते सांशयिकी व दीक्षा, लुंकामहामात्यवरस्य तस्य । तदाख्यया ते श्रमणा बभूवुर्गच्छोऽपि जज्ञे वटवद्विवृद्धः ॥ कुछ मानते हैं कि लंका ने दीक्षा ग्रहण नहीं की और कुछ मानते हैं कि उन्होंने दीक्षा ग्रहण की। कुछ भी क्यों न हो, आखिर मत का प्रवर्तन तो उन्हीं के नाम से हुआ और वे साधु भी लोंकागच्छीय साधु कहलाये । यह गच्छ वट वृक्ष की तरह विस्तृत होने लगा। ११५. पट्टद्वयं तस्य पवित्रनीत्या, चचाल तावन्ननु धूमकेतुः । तारुण्यमाप्त: स पुनः प्रहारैः, सम्पातयामास विशुद्धिमार्गात् ॥ अनुमान से ऐसा लगता है कि यह सम्प्रदाय दो आचार्यों तक तो शुद्ध ही चला, पर इतने में धूमकेतु युवा बन गया। उसने अपने प्रहारों से उन साधुओं को विशुद्ध मार्ग से च्युत कर दिया। ११६. अत्रान्तरे शुद्धपरम्पराओं, व्यस्तं कदाप्यदुदयं कदापि । य: कोप्युदस्थान मुनिभावितात्मा, केतोः कटाक्षः क्षमितो न हन्त! ॥ १. त्रिदिवं -स्वर्ग।
SR No.006278
Book TitleBhikshu Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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