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________________ द्वितीयः सर्गः १०६. तैः प्रोचिरे भो मनुजा! न हिंसा, धर्माय दोषाय ततस्त एव । शोचन्त्यमी साध्वधमा न सन्तः, दयाऽपि येषां हृदये न कापि ॥ तब संघस्थ मुनियों ने कहा-श्रावको ! धर्म के लिए की जाने वाली हिंसा में दोष नहीं है । यह सुनकर श्रावकों ने सोचा, ये संत नहीं, अधम साधु हैं । इनके मन में कोई दया है ही नहीं। १०७. पाखण्डिन: पञ्चमदुःषमारे, ये भाविनस्ते कथितप्रकारैः । वक्ष्यन्ति लुकासविधे' श्रुतं यदम्यैव तल्लक्षणलक्षिताश्च ॥ और मेहता ने भी तो यही बतलाया था कि इस पंचम कलिकाल में जो पाखंडी होंगे वे ही ऐसी प्ररूपणा करने वाले होंगे कि देव, गुरु और धर्म के निमित्त होने वाली हिंसा हिंसा नहीं होती । तथा मेहता के द्वारा बतलाये गए पाखंडियों के सारे लक्षण इन यतियों में स्पष्ट रूप से प्रतिभासित हो १०८. अयात् प्रबुद्धाः पुरुषाः कियन्तो, नेपथ्यसारान् परिमुच्य धैर्यात् । जिघृक्षवः संयममन्तरङ्ग, लुंकासमीपे समुपागतास्ते ।। तब कुछेक प्रबुद्ध व्यक्ति वेशधारी यतियों को छोड़कर धैर्यपूर्वक विशुद्ध संयम की दीक्षा लेने के इच्छुक होकर लूंका मेहता के पास आए । १०९. अभ्युद्गमः शाम्भवशासनस्य, भव्यो हि तस्माच्छुभसङ्गमोऽयम् । भूतिग्रहोऽयं दशमीदशाप्तो, लग्नोऽपि बालोऽद्य च धूमकेतुः ।। वास्तव में वह समय जैन शासन के अभ्युदय का समय था, तभी तो लूका जैसे भव्य प्राणी का शुभ संयोग मिला और उस समय भगवान की राशि पर लगे हुए भस्मग्रह के वृद्ध हो जाने तथा धूमकेतु की अभी बाल्य अवस्था होने के कारण ही यह सब कुछ बन पाया था। ११०. भूरामबाणावनिवैक्रमाब्दे, लुकाभिरेवं परमोच्चभावः । चतुःपुरासङ्ख्यकचारुचत्वारिंशज्जनाः संयमिता बभूवुः ।। तब विक्रम संवत् १५३१ में ४४ व्यक्तियों ने प्रतिबद्ध होकर लंका मेहता के साथ भागवती जैन दीक्षा ग्रहण की। १११. महौजसा सार्वविशुद्धमार्गप्रचारकार्ये प्रभवोऽवधाद्यैः । द्वयोर्द्वयोस्तन्मुनिपुङ्गवानामेकैकयूथोऽजनि तारणाय ॥ १. सविधं--पास में (पावं समीपं सविधं....अभि० ६।८६) २. यदम्यैव -- यत् +अमी+एव ।
SR No.006278
Book TitleBhikshu Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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