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श्रीभिक्षुमहाकाव्यम्
____लूंका मेहता जैन सूत्रों का अध्ययन कर जैन धर्म के मर्मज्ञ हो गए। उन्होंने अपने अहं को छोड़, शीघ्र ही श्रद्धालु लोगों को अभिलक्षित कर, उनके हित के लिए प्रतिबोध देना प्रारम्भ कर दिया ।
१०२. तत्संघसभ्या अपि भव्यभव्याः, श्रोतुं समायान्ति विचारधाराम् ।
आचारमागारमुचां यथार्थमाकर्ण्य जैनं सुकृतं प्रसन्नाः ॥
उस संघ के कुछ भव्य लोग मेहता की विचारधारा को सुनने के लिए आने लगे। मेहता से जैन मुनियों के यथार्थ आचार को सुनकर वे बहुत प्रसन्न हुए। १०३. पप्रच्छुरात्मीययतीन् प्रयत्नात्, रोषारुणाक्षा: प्रबभाषिरे ते । ___उम् साम्प्रतं संयमिनां धुरं तां, वोढं प्रकाण्डोद्ध र कन्धरः कः ॥
मेहताजी के पास साध्वाचार सम्बन्धी बातें सुनकर श्रद्धालुओं ने अपने यति गुरुओं से प्रयत्नपूर्वक पूछा-'क्या मेहताजी द्वारा बतलाया गया साध्वाचार वास्तव में सही है ?' ऐसा पूछते ही यतिजन क्रोध से लाल-पीले होते हुए बोले—हूं, इस कलिकाल में मुनिचर्या की उस कठोर धुरा को वहन करने में कौन प्रशस्त और उन्नत कंधरा वाला है ?
१०४. परस्सहस्राक्रमण: स तत्राकान्तोऽपि नो सत्यपथापसारी।
उपादिशन् शुद्धजिनेन्द्रधर्म, क्षुब्धो न रुखो वलितो न किञ्चित् ॥
यतियों ने लंका मेहता पर हजारों आक्रमण किए । लंका ने नाना प्रकार से आक्रांत होने पर भी अपने सत्य मार्ग को नहीं छोड़ा। वे विशुद्ध जैन धर्म का प्रकाशन करते हुए न क्षुब्ध हुए, न रुके और न अपने पथ से किंचित् भी मुडे ।
१०५. पार्श्वस्थशीला हि विचिन्तयन्ति, श्रेयस्तमा नो स्थितिरत्र तस्मात् ।
उत्काः प्रयातुं प्रविलोक्य लोकैरुक्ताः प्रभूताऽयतनाऽधुनाऽसौ ॥
पार्श्वस्थ मुनियों ने सोचा कि यहां की स्थिति श्रेयस्कर नहीं है। वे वहां से प्रस्थान करने के लिए उत्कंठित हो गए। प्रस्थान को देखकर लोगों ने कहा--- भगवन् ! अभी प्राणियों की अयतना का बहुत प्रसंग है, अतः यहां रुकना ही उचित है । १. उम्-क्रोधपूर्वक कहना (रोषोक्तावं....अभि० ६।१७८) २. उद्धरम् -उन्नत (तुंगमुच्च मुन्नतमुद्धरम् ---अभि० ६।६४) ३. कन्धरा-ग्रीवा (कन्धरा धमनी ग्रीवा-अभि० ३।२५०)
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