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द्वितीयः सर्गः
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उसका सर्वागीण अध्ययन कर मेहता चौंक उठे। उन्होंने सोचा - कहां तो आगम में प्रतिपादित जैन साधुओं का आचार-विचार और कहां इन यतियों का आचार ! आगमदृष्टि से तो ये संत हैं ही नही । ये स्वयं की और दूसरों की विडंबना ही करते हैं, छलते हैं ।
९७. परन्त्विदानों समयान् समग्रान्, स्वायत्ततां नेतुमलं प्रसारैः । ततः प्रचक्रे प्रविलेखितुं स द्वे द्वे लिपी रात्रिदिनप्रभेदात् ॥
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परन्तु जब तक सारे सूत्र मेरे हस्तगत न हो जाएं, मुझे इस विषय का प्रसार नहीं करना है, ऐसा विचार कर लूंका लिपि करने के लिए दिये गये सूत्रों की यथार्थ रूप से एक दिन में और एक रात में ऐसे दो-दो प्रतियां लिखने लगे ।
९८. प्रायोद्धृता येन जिनागमाश्च परेद्युरन्यत्र गते यदस्मिन् । तदीयपुंसः प्रतिमायमाणान् पत्नी सुता वाऽवददेवमत्र ||
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९९. देनों प्रयच्छाम्यथवा च नैशीमित्थं निशम्यैव विलक्षचित्ताः । काञ्चित् प्रदत्तां लिविमादधानाः, हता इवोपाश्रयमाश्रयंस्ते ॥
( युग्मम्)
इस प्रकार लंका मेहता ने प्रायः जैनागमों की प्रतिलिपि कर ली थी । एक दिन वे कहीं दूसरे गांव गए हुए | गच्छाधिपति ने प्रतिलिपिकृत प्रतियों को लाने के लिए यतियों को भेजा । उनके पूछने पर लूंका मेहता की पत्नी अथवा लड़की ने उनसे पूछा- आपको कौनसी प्रति दूं, दिन में लिखी जाने वाली या रात में लिखी जाने वाली ? दो-दो प्रतियों की बात सुनकर वे आने वाले यति चौंक पड़े और प्रदत्त प्रतिलिपिकृत प्रतियों को लेकर उपाश्रय चले आये तथा सारी घटना ज्यों की त्यों संघपति को कह सुनायी ।
१००. गामात्ततो लेखचणः समागात् विज्ञातवृत्तोऽपि समाधिवान् सः ।
प्रत्यर्पणं तैः स्थगितं नितान्तं, स्वाचारशैथिल्यविकास भीत्या ॥
इधर मेहता भी ग्रामान्तर से लौट आए और सारा व्यतिकर सुनकर भी शांत रहे । अपने आचार - शैथिल्य के प्रगट हो जाने के भय से यतियों ने उन्हें प्रतिलिपि करने के लिए प्रतियां देना सदा के लिए स्थगित कर दिया ।
१०१. अधीत्य सूत्राणि जिनेन्द्रधर्म मर्मज्ञ औद्धत्यमपास्य शीघ्रम् । श्रद्धालुलोकानभिलक्ष्य दक्षः, प्रचक्रमे बोधयितुं हिताय ॥