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________________ श्रीभिक्षु महाकाव्यम् जब वृष्टि के कारण चारों और त्रस तथा स्थावर जीवों की तथा पानी, शैवाल, हरितकाय और नये अंकुरों की विशेष रूप से वृद्धि हो गई, तब हिंसा की अधिक संभावना होने के कारण यात्रा के लिए प्रस्थित उस संघ ने अहमदाबाद नगर में अपना पड़ाव डाल दिया । ६० ९२. आस्वाद्यमानान्युपदेहिकाभि' गोपायितान्यात्मनिधीकृतानि । जीर्णो भवच्छ्रीजिनवाङ्मयानि, शीर्णानि पत्राण्यपि यत्र तत्र ॥ ९३. इतः स लूंका उदारवृत्ती, राज्येषु मुख्यो वरलेखकश्च । अस्मै प्रदत्तानि सुलेखनाथ, सूत्राणि गच्छाधिकृतैर्यतीन्द्रः ॥ ( युग्मम् ) अहमदाबाद नगर में यतियों के उपाश्रय में जैन वाङ्मय का अखूट भंडार था, जो गुप्त निधि की भांति ही गुप्त रखा जाता था । उस पर तत्रस्थ तियों का पूर्ण अधिकार था । प्रतिलेखन और सार-संभाल के अभाव में कितनी ही हस्तप्रतियां दीमकों के द्वारा खा ली गईं थीं और कितनी ही प्रतियां जीर्ण-शीर्ण हो चुकी थीं । यह देखकर गच्छपति यति ने उन हस्तप्रतियों के पुनरुद्धार की बात सोची । अहमदाबाद में उदारवृत्ति वाला लूंका मेहता रहता था । वह राजकाज में प्रधान और सुन्दर लिपिकार था । यतियों के गच्छपति ने सूत्रों की प्रतिलिपि के लिए उसे ही योग्य समझकर प्रतिलिपि का भार सौंपा । ९४. एकां गृहीत्वाऽत्र पुनद्वतीयां, लिपि ददानः क्रमतोऽखिलानाम् । पुनपि कारयितुं प्रवृत्तः, कर्तुं स्वयं सोऽपि समुद्यतोऽभूत् ।। लूंका मेहता ने इस कार्य को सहर्ष स्वीकार कर लिया। तब उसे क्रमशः एक-एक प्रति प्रतिलिपि के लिए दी जाने लगी । एक प्रति की प्रतिलिपि होने के बाद ही दूसरी प्रति प्रतिलिपि के लिए दी जाती थी । ९५. स्वभू' लघीयोमनकर्षये श्रीशय्यम्भवोपज्ञ' महागभीरम् । पूर्वोद्धृतं सर्वशरीरपूर्ण, पुरा वितीर्णं दशकालिकं तत् ॥ सबसे पहले उसे श्री शय्यं भवगणी द्वारा अपने लघु पुत्र मनक मुनि के लिए स्वरचित, पूर्वों से उद्धृत, महान् गम्भीर एवं सर्वाङ्ग सम्पन्न दशवे - कालिक सूत्र की हस्तप्रति प्रतिलिपि करने के लिए दी । ९६. अधीत्य तच्चारुचमत्कृतोऽभूत् क्व चेयमाचारविचार वीथी । एतत्प्रमाणेन न साधवोऽमी, विडम्बयन्ति स्वपरान् वराकाः ॥
SR No.006278
Book TitleBhikshu Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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