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________________ द्वितीयः सर्गः उस वर्षा ऋतु रूपी राजा ने अपनी घोर गर्जना से प्रयाण की भंभा को चारों ओर बजाते हुए, आकाश और पाताल का भेदन करते हुए, शत्रुहृदय को कम्पाते हुए, संघ के हृदय के साथ-साथ अपनी कादम्बनी सैन्य घटा को ऊंची उठाते हुए और वायु को अपना सेनापति बना, आकाश रूपी रणभूमि में इस पार से उस पार तक अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया। __उसने (वर्षा रूपी राजा ने) इन्द्रधनुष के मिष से चाप को धारण करते हुए, वृक्षरूप ध्वजा को फहराते हुए, विद्युत् रूप प्रचण्ड दण्ड को घुमाते हुए, तूफानों से चारों ओर के वैरियों को अभिभूत करते हुए, मयूर के केकारव रूप रणतूरों से दिग् मण्डल को गुजाते हुए अपने वैरी निदाघ राजा पर आक्रमण कर दिया और अपनी धारा रूप बाणों की बौछार के महाप्रहारों से उस तपतु (ग्रीष्म ऋतु) राजा के दुर्गम दुर्ग को तोड़ डाला। सत्तारूढ़ होने पर पानी ने भूमि के ऊंचे-नीचे सभी स्थलों को एकाकार बना डाला । यह चिंतनीय है कि जब जड़ पदार्थ शक्तिसंपन्न होता है तब वहां कैसा विवेक हो सकता है ? उस जड़ जल ने धरती को आप्लावित करते हुए भूतल को मनुष्यों के नेत्रों से ओझल कर दिया और पानी के प्रवाह से नदियों और नालों के तटों को वैसे ही तोड़ डाला, जैसे एक अकुलीन व्यक्ति मर्यादाओं को तोड़ डालता है। विजित भूमि और प्रजा की प्रतिपालना करना यह राजा का प्रथम कार्य होता है, ऐसा सोचकर उस मेघराजा इन्द्र ने समस्त धरातल के मैल को धोकर दूर करते हुए मीठे-मीठे शब्दों से त्रस तथा स्थावर जीवों को सान्त्वना दी तथा पृथ्वी को प्रवाल आदि रत्नों से भर कर हरीभरी बना डाला। ___ आतप के मिट जाने पर वह मेघराजा सम्पूर्ण क्षितिज पर अपना आधिपत्य स्थापित कर स्रोत एवं स्रोतस्विनी के रूप में दूत एवं दूतियों को समुद्र के उस छोर तक भेजकर चारों ओर अपनी सत्ता विस्तृत करते हुए एक सम्राट् की भांति सुशोभित होने लगा। ९१. प्रादुर्भवत्स्थावरजङ्गमापां, नीली हरित्कायनवाकुराणाम् । विज्ञाय हिंसामहमन्दवादे', संघस्ततस्तत्र निवासकारी ॥ १. नीली-शैवाल (नील्यां शैवालशेवले–अभि० ४।२३३) २. अहमन्दवादे-अहमदाबाद नगर में ।
SR No.006278
Book TitleBhikshu Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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