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________________ प्रथमः सर्गः ३३ जिसका विशाल हृदय प्रामाणिक पुरुषों में परम हार्दिक प्रतिष्ठा को खुशी-खुशी प्राप्त कराने वाला हो, ऐसे उस हृदय का निरीक्षण करने के लिए ही यदि यह श्रीवत्स [का चिन्ह] मध्यस्थ की तरह यहां हृदय के बीच आ बैठा हो, इसमें क्या आश्चर्य ! १०६. रेखात्रयी यदुदरे प्रतिबोधयित्री, रत्नत्रयेण भरितो जठरोऽस्य भावी । गम्भीरनाभिसविधे प्रतिभासमानो, यः स्वस्तिकः सकलमंगलतानुशंसी ।। इस शिशु का उदर रत्नत्रय से भरा हुआ रत्नों का भण्डार होगा, मानो ऐसा प्रगट करने के लिए ही इसके उदर पर तीन रेखाएं खचित हैं तथा सभी प्रकार के मंगल की सूचना देने वाला स्वस्तिक का चिह्न भी इसके गंभीर नाभि कमल के पास भासमान हो रहा था। १०७. चिह्न ध्वजाख्यमपि घोषयदेवमेव, धर्मध्वजोऽस्य निखिले परिधूयमानः । प्रख्यातिमेष्यति शुभामभिधानमस्य, वर्षाणि विशतिशतानि वसुन्धरायाम् ।। इस विश्व में इसकी धर्म-ध्वजा फहरायेगी, इसका नाम इस धरा पर दो हजार वर्ष तक अमर रहेगा और यह शिशु शुभ प्रख्याति को प्राप्त करने वाला होगा, ऐसी उद्घोषणा करने वाला ध्वज-चिन्ह भी वहां पर चिह्नित था । १०८. गम्भीरनाभिरखिलाङ्गवरा सुवृत्ता ऽऽवर्ता भृतहूद इवाऽस्य बभौ नितान्तम् । ' स्फारायताऽतिकठिना कटिरस्य पुष्टा, वक्षःस्थलेन तुलितुं किमु चेष्टमाना ॥ समस्त अंगों की आधारभूत, दक्षिणावर्त वाली सुन्दर और गोलाकार गंभीर नाभि जल से परिपूर्ण सुन्दर सरोवर की तरह प्रतीत हो रही थी और लम्बी-चौड़ी तथा अति कठिन पुष्ट कटि से ऐसा भान होता था कि मानों वह वक्षःस्थल की बराबरी करने के लिए ही सचेष्ट-सी हो रही हो । १०९. पीनी क्रमेण मृदुलौ मसृणौ यदस्य, चक्रेश्वरस्य गजरत्नकरोपमोरू । संरक्षितुं जिनमतप्रपतत्प्रसाद, स्तम्भोपमा किमभवत् परिपुष्टजङ्घा ।
SR No.006278
Book TitleBhikshu Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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