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________________ ३२ श्रीभिक्षुमहाकाव्यम् तापत्रय से सतत संतप्त इस विश्व का शीघ्रातिशीघ्र उद्धार करने के लिए जिनेश्वर देव द्वारा प्रणीत रत्नत्रयी- सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यगचारित्र ही समर्थ है । इसकी स्मृति कराने के लिए ये तीन रेखाएं मणिबन्धरेखा के रूप में अनवरत दीप्तिमान हो रही थीं। १०२. अंगुष्ठ उन्नत इवाङ्गलयोऽस्य शोणा श्छिद्रातिगाः सुसरला अवदातपर्वाः। सागुष्ठपुष्टलसितालिमस्तकेषु, चक्राणि सूनृत वदद्दशसङ्ख्यकानि ॥ उन्नत अंगुष्ठ की तरह उसकी अंगुलियां पुष्ट थीं। वे रक्त वर्णवाली, निश्छिद्र, सरल एवं स्पष्ट पर्वो वाली थी। अंगुष्ठ सहित पुष्ट एवं सुन्दर अंगुलियों के ऊपरी भाग में भावी शुभ के सूचक दश चक्र थे। १०३. अंगुष्ठपर्वसु यवा बहुशोभमाना, यस्य प्रतापतुरगस्य विशेषपुष्ट्यै । हस्तामरीयतरुपल्लवकान्तिकान्ताः, कामाकुशाः शुशुभिरे निजनामसत्याः॥ शिशु के प्रतापरुपी घोड़े को विशेष रूप से पुष्ट बनाने के लिए ही मानों इसके अंगुष्ठ पर्यों में रेखांकित यव अत्यन्त शोभा पा रहे थे। शिशु के हाथ रूपी कल्पवृक्ष के पल्लवों की कान्ति की तरह ही कमनीय कामाङकुश (नख) अपने नाम को सार्थक करते हुए मानो देदीप्यमान हो रहे थे। १०४. वक्षोऽस्य पण्डकवनीयशिलाविशालं, रौद्ररुपद्रवशतैरपि निष्प्रकम्पि । सत्यप्रकाशनबलिष्ठमनिष्टकण्ठं, साक्षाद् भवेत् सुरगुरुर्वधकस्तथाऽपि ॥ इसका वक्षस्थल पंडक वन की शिला की भांति विशाल और सैकड़ों भयंकर उपद्रवों से भी निष्प्रकंप था। वह सत्य प्रकाशन में बलिष्ठ तथा अनिष्ट - अनौचित्य के लिए क्रूर चाहे फिर उसे करने वाले साक्षात् बृहस्पति या यमराज ही क्यों न हों ? १०५. प्रामाणिकेषु परमां हृदयप्रतिष्ठा, . यस्याऽप्रमाणिक मुरोऽपि मुदा प्रदातृ । श्रीवत्स एष किमु तत् परिवीक्षणाय, मध्यस्थवत् तदुपकण्ठगतो हि चित्रम् ॥ १. अप्रमाणिक-अपरिमित, विशाल ।
SR No.006278
Book TitleBhikshu Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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