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श्रीभिक्षुमहाकाव्यम्
शिशु की परिपुष्ट जंघाएं चक्रवर्ती के गजरत्न की सूंड की भांति क्रमशः पुष्ट, कोमल और स्निग्ध थीं । वितर्कणा होती थी कि क्या ये जिनशासन के ढहते हुए प्रासाद को स्थिर रखने के लिए स्तंभ हैं ?
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११०. द्वन्द्वं मिथस्तत इतः परिबृंहणाय,
न स्यात् कदाप्युभयतः प्रसृतोरुमध्ये | जानुद्वयं दृढसमुन्नतमस्य सीमास्तम्भोपमं समभवत् किमतोऽन्तराले ||
ऊपर या नीचे बढने के लिए जघा एवं उरुओं में परस्पर झगडा न हो जाए, मानो इसीलिए ये दोनों मजबूत व समुन्नत जानु सीमा स्तम्भ की तरह बीच में आकर खड़े हुए हैं ।
१११. आवां पवित्रयितुमेव विभाविनो स्वः, गाङ्गेय सैन्धववहाविव तस्य हर्षात् । पादौ यदस्य भवतः स्म सुपुष्टपुष्टौ, कूर्मोन्नती मृदुमृद् मसूणौ मनोज्ञौ ॥
इनके पुष्ट, कोमल, चिकने, मनोज्ञ और कूर्मोन्नत दोनों पैर मानों हर्ष के साथ ऐसा बतला रहे हैं कि हम गंगा और सिन्धु नदी की भांति ही सारे भूतल को पवित्र करते रहेंगे ।
११२. अस्मत्सु वाग् निवसति स्वयमेत्य लक्ष्मीरस्मानुपेत्य तनुते तनु के लिलीलाम् । asन्ये परन्तु यदितो जितवारिजानि, पद्भ्यां समर्पितरमाणि सरोगतानि ॥
पद्मों ने सोचा, हमारे ऊपर सरस्वती स्वयं आकर निवास करती है तथा लक्ष्मी स्वयं हमें प्राप्त कर नाना प्रकार की क्रीड़ाओं से लीला करती है । औरों की तो बात ही क्या, परंतु इस शिशु के पादपद्मों की सुन्दरता के सामने उन कमलों का वैभव फीका पड़ गया, अतः वे पराजित होकर ही मानों इसके चरण कमलों में अपनी सुन्दरता को उपहृत कर सरोवर में जा बसे ।
११३. पादारविन्दयुगलाङ्गुलिभि: प्रवाला, लज्जाकुलास्तनुतनुत्वमिता यदस्य । ऊर्ध्वं तरोनिजगलं परिबध्य खिन्ना, देहं मुमुक्षुतरलाः किमु ते तदर्थम् ॥