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दशमः सर्गः
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महान् ओजस्वी और मनस्वी, अपने धर्म में अप्रकम्प, वीरों में अग्रणी, पराक्रमी, चमकते हुए चंचल चन्द्रहास से चपल एवं भालों से सुशोभित राणा शौर्य-समर में पृथ्वी को वीरों से शून्य करता हुआ चारों ओर इस प्रकार फैल गया कि स्वयं अकबर भी किंकर्तव्यविमूढ हो उठा। ३५. निष्ठां क्षत्रियदेशसंस्कृतिलसत्स्वातन्त्र्यमन्त्रावने, .
तस्यैक्ष्याखिलसैनिकाः खलु पुनः प्रोत्साहमात्मेशितुः । तद्वत् ते हि गुणायिताश्चकमिरे योद्धं च युद्धाङ्गणे, सामन्ता विकटा भटाः प्रतिभटान् जित्वा गताः कृत्यताम् ॥
राणा की अखिल सेना क्षत्रियों की, देश की, संस्कृति की एवं स्वातन्त्र्य के मन्त्र की रक्षा के लिए अपने स्वामी की निष्ठा एवं उत्साह को देखकर राणा की तरह द्विगुणित उत्साह से जाग उठी और वह रणभूमि में कूद पडी। राणा के सामन्त एवं शूरवीर भट उन शत्रुभटों को खदेडकर, जीतकर कृतकृत्य हो गए।
३६. दैवात्तत्कलिकालकेलिकलनाद्राज्ये हृते शत्रुणा,
ह्येतस्यां च तदा नरेन्द्रनिकरैविष्वक समावेष्टितः। दोर्दण्डैदलयन् द्विषो प्रतिहतो दोधूयमानो ध्वज, नित्यं केसरिसिंहवत् तत इतो बम्भ्रम्यमाणो बली ॥
दैवयोग से एवं कलिकाल की क्रीडा के प्रभाव से जिनका राज्य शत्रुओं द्वारा अपहृत हो जाने पर तथा वहां चारों ओर से राजाओं से घिर जाने पर भी वह वीर अपने भुजदण्डों से शत्रुओं को हत-प्रतिहत करता हुआ एवं अपने विजयध्वज को फहराता हुआ राणा प्रतापसिंह प्रतिदिन केसरी सिंह की भांति वहां निःशंक घूमता रहा।
३७. एतत्पर्वतपङ्क्तिकासु परितः प्रत्यर्थिभूपावृतः,
कोटाकोटिकठोरघोरघटनासङ्घाटसङ्घट्टितः । वीरा वीरगति गताश्च बहुशः सामन्तसन्मण्डली, देशत्यागमृते न शक्तिरपरा सैन्यं च दैन्यं गतम् ॥
इधर तो यह वीर इस पर्वतमाला में शत्रु राजाओं से घिरा हुआ था तथा अनेकानेक भयङ्कर कष्टों को झेल रहा था तो उधर उसके वीर सुभट एवं सामन्त भी वीरगति को प्राप्त हो चुके थे तथा सेना भी साधनों के अभाव में दीन बन चुकी थी। ऐसी स्थिति में देशत्याग के सिवाय और कोई दूसरा चारा नहीं था, दूसरी शक्ति नहीं थी।