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________________ ३१६ श्रीभिक्षुमहाकाव्यम् ३८. उल्लोचो घतलं तदाऽनिलचलत्पर्णावलीचामराः, शय्या घासमयी त्वचोपसिचयः सिंहासनं भूतलम् । सेनावीररसोच्छलत्स्वतनुषां रोमावलिः प्रोत्कटा, साहाय्याश्च वनेचरा शुभसभा चोपत्यकाऽधित्यका ॥ ऐसी अवस्था में राणा के केवल खुला आकाश ही चंदोवा, हवा..से हिलने वाली वृक्षपर्णावलि ही चामर, घासमयी शय्या, त्वचारूप ही कपड़ें, भूतल ही सिंहासन एवं वीररस से उछलती हुई अपने शरीर की रोमावली ही उत्कट सेना, वनचर ही, सहायक तथा उपत्यका और अधित्यका ही शुभ सभा-स्थल था। ३९. द्रव्यं दिव्यमनस्विता कुशलता सम्पत् सदा सामरी, ' श्रेष्ठद्धिः परमैश्वरी परकृपा वेलैव शस्त्रास्त्रकम् । • स्वायत्त्यं हि सुखं समुच्चशिखरं सन्मन्दिरं कन्दरम्, सामग्री तनुशेषता निविडता सज्जीवनी जीवनी ॥ उनके पास मनोबल. ही धन, रणकुशलता ही सम्पत्, परमेश्वर की कृपा ही श्रेष्ठ ऋद्धि, अवसर ही शस्त्रास्त्र, स्वतन्त्रता ही सुख तथा ऊंचे-ऊंचे शिखरों वाली गुफाएं ही प्रासाद, शरीर की अवशेषता ही सामग्री तथा मजबूती ही संजीवनी बूटी थी। ४०. राज्ञीभी रचितं ह्यपूपमवशात् व्यह्नोपवासाकुल- बालातोऽपजहार तं च सहसा वन्यौतुना दुर्लभम् । .. तादग् बुर्घटनास्थलेपि न नतो यल्लोकधर्मादपि, : .. प्रान्ते न्यायसखो बभूव विजयी न्यायः सहायो महान् ॥ उन पर्वतमालाओं में रानी द्वारा बनाई रोटी को तीन दिन की भूखी बाला के हाथ से वन-बिलाव ने छीन लिया और उसका पुनः मिलना भी दुर्लभ हो गया। ऐसे दुर्घटनास्थल में भी वे अपने लौकिक .धर्म से किञ्चित् भी विचलित नही हुए। वे अन्त में न्याय-सखा के संहारे विजयी बन गए। क्योंकि न्याय ही महान् सहायभूत होता है। १. उल्लीच:-चन्दोवा (उल्लोचो वितानं कदकोऽपि च अभि० ३।३४५) २. सिचय:-वस्त्रं (सिचयो वसनं चीराच्छादो-अभि० ३।३.३०) ६.३. उपत्यका-पर्वत की ऊपरी भूमि अधित्यकोर्ध्वभूमिः स्यादधोभूमि अधित्यका-पर्वत की तलहटी रुपत्यका (अभि० ४।४०१)
SR No.006278
Book TitleBhikshu Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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