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________________ श्रीभिक्षुमहाकाव्यम् १७. योगीश्वरं निकषितं विदकाट्यतत्त्व मात्माथिनं गुरुगुणान्वितमुग्रबुद्धिम् । भाग्योदयोद्य मम भिक्षुमुनि जिनेन्द्र, स्तौम्येव नो परमपुण्यपथं प्रयामि ॥ मैं परम योगीश्वर, साधना की कसौटी पर कसे हुए महान् ताकिकों के द्वारा भी अकाट्य तत्त्व के प्रतिपादक, आत्मार्थी, उच्चतम गुणों के धारक, महान् मेघावी आचार्य भिक्षु का गुणगान कर अपने आपको परम सौभाग्यशाली मानता हूं। साथ ही साथ मैं उनके द्वारा प्रवर्तित 'तेरापंथ' का अनुगमन भी कर रहा हूं, यह भी मेरे पुण्य का ही प्रतिफलन है । १८. लालाटिका'ननसमानविशेषकृत्यश्चाथिमानजनरञविदूषकत्वः । किं वर्णिताः कतिपया न मया त्विदानी, सिद्धयर्थमेव तमृर्षि सुचरित्रयामि ॥ मुंह देखकर तिलक करना, चापलूसी करना, जनरञ्जन करना, विदूषक वृत्ति को अपनाना-इस प्रकार मैंने अतीत में न जाने किन-किन के गुणगान नहीं किए, किंतु अब मैं आत्मसिद्धि के एक मात्र प्रयोजन से महामुनि भिक्षु का सुचरित्र लिख रहा हूं। १९. योगोत्थशुद्धमतिमण्डितपण्डिताना मुत्तेजिताद्भुतविवेकपटुप्रहारैः । प्रोत्कीर्णयद्गुणमहाय॑सुमौक्तिकेषु, स्रष्टुं स्रजं प्रतिभया गुणवद् विशामि । __ आचार्य भिक्षु की बहुमूल्य गुण मुक्ताएं योग साधना से जागृत शुद्धमति वाले पण्डितों के विलक्षण विवेक-प्रहारों से बींधी हुई हैं। उनकी माला गूंथने के लिए मैं उनमें धागे की तरह अपनी प्रतिभा से प्रवेश कर रहा हूं। २०. दाक्षिण्यमस्ति न तथा प्रगतिप्रयोगा:, पन्न्यासताऽपि न तथा परमस्ति चैका। श्रद्धा हि मे बलवती प्रयते यतोऽत्र, मार्गस्थितो यदवसीदति नो कदापि ।। १. ललाटं-प्रभोर्भालं पश्यतीति लालाटिकः ।
SR No.006278
Book TitleBhikshu Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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