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________________ प्रथमः सर्गः १४. दूरे प्रयान्तु चकिताङ्गिवदन्तराया, नश्यन्त्वशक्तय इवेतय' इष्टदेवात् । मा मा स्पृशन्तु जडता इव मन्दता मां, यस्मात् करोमि किल केवल पुण्यकार्यम् ।। मैं एक पुण्य कार्य में प्रवृत्त हो रहा हूं इसलिए यह कामना करता हूं कि समस्त विघ्न और बाधाएं भयभीत व्यक्ति की भाति मेरे से दूर हो जाएं, सारी दुर्बलताएं वैसे ही नष्ट हो जाएं जैसे इष्टदेव महावीर के शुभागमन से सारे उपद्रव नष्ट हो जाते हैं। मुझे मंदता वैसे ही छू न पाए जैसे चेतन को जड़ता। १५. कि संकटा: प्रतिभटाः किमसाध्यसाध्यं, किं वा क्लम: समभिभूय समान् तदर्थम् । प्रस्तौमि सम्प्रति दृढासनसन्निविष्टः, . प्रोत्साहिन: सफलता च पुरः प्रतिष्ठा ॥ अब वे कौनसे संकट हैं जो शत्रुओं की भांति मेरे सामने खड़े रह सकते हैं ? अब वह कौनसा साध्य है जो मेरे लिए असाध्य हो सकता है ? अब वह कौनसा श्रम है जो मुझे विचलित कर सकता है ? अब मैं इन सबको पराभूत कर, कटिबद्ध होकर काव्य-रचना करने के लिए प्रस्तुत हो रहा हूँ । यह सुविदित है कि उत्साही व्यक्ति के समक्ष सफलता हाथ जोड़े खड़ी रहती है। १६. स्याद् वा श्रमो गुरुचरित्रसुधाशिनो मे, चिन्ता न तत्र सकलः सहनीय एव । केतुर्जनार्दनकरामृतपानमिच्छुरात्मीयमस्तकमपि प्रवदे ततः किम् ॥ मैं आचार्य भिक्षु के जीवन चरित्र को लिखकर अमृतपान करना चाहता हूं । यदि इस उपक्रम में मुझे कुछ श्रम भी उठाना पड़े तो कोई चिंता नहीं है। मैं उस श्रम को सहन कर लूंगा । केतु ग्रह जनार्दन के हाथों अमृतपान करना चाहता था । उसने इसके लिए अपना मस्तक भी दे डाला, कटवा दिया, तो फिर मुझे इन कष्टों की चिंता ही क्या है ? १. चकितः-भयभीत (दरितश्चकितो भीतो-अभि० ३।२९)। २. ईतिः - उपद्रव (अजन्यमीतिरुत्पातो--अभि० २।४०)।
SR No.006278
Book TitleBhikshu Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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