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________________ श्रीभिक्षुमहाकाव्यम् इष्टदेव का आश्रय लेकर ही मैं अपने अन्तःकरण में स्थित आचार्य भिक्षु के जीवनवृत्त को अभिव्यक्त करने का प्रयास कर रहा हूं । सूर्य अत्यन्त तेजस्वी है । क्या वह आकाश का आश्रय लिए बिना हजारों प्रयत्नों से भी विश्व को प्रकाशित कर सकता है ? ११. हर्षप्रकर्षवशतो रसतो रसानां, भिक्षोर्मुनेविरचयामि विशिष्टवृत्तम् । मन्ये जनेषु मुदमार्यगुणान्वितेषु, निर्मातृपर्यवसितं श्रुतमात्मसिद्धयं ॥ मैं आनन्द से ओतप्रोत होकर मुनि भिक्षु के विशिष्ट जीवनवृत्त का सरस काव्य में रचना कर रहा हूं। मैं मानता हूं कि आत्मसिद्धि के लिए प्रयत्नशील आर्यपुरुषों को यह काव्य अपूर्व आह्लाद देने में सफल होगा। १२. क्वाऽऽर्यस्य तस्य चरितं विततं विशुद्धं, ' क्वाहं पराणुपरकप्रतिभाप्रभावी । धैर्यात् तथापि तदुपक्रमितुं प्रवृत्तः, कि कूदते न पवनोद्धतरेणुरभ्रे ॥ __कहां तो उन आर्य भिक्षु का सुविस्तृत जीवन चरित्र और कहां मैं अणु जैसी अत्यल्प प्रतिभा का धारक ! किन्तु फिर भी मैं अपने धैर्य को संजोकर उस जीवनवृत्त को लिखने का उपक्रम कर रहा हूं। क्या हवा से प्रेरित होकर धूलि कण आकाश में उछल-कूद नहीं करते ? १३. यद् व्याकरोमि तदिदं न हि मे प्रभुत्वं, तस्यैव धीरपुरुषस्य महानुभावः। यो दृश्यते नयनयान्त्रिककर्मकाण्डः, सर्वोऽपि तच्चतुरचेतनसत्प्रपञ्चः ।। इस विषय में मैं जो कुछ अभिव्यक्त कर रहा हूं, उसमें मेरा अपना कुछ भी नहीं है । सब कुछ उस धीर पुरुष का ही महान् प्रभाव है। जो कुछ आंखों से दिखाई दे रहा है या यन्त्रों के द्वारा उत्पादन हो रहा है, उन सबकी पृष्ठभूमि में निपुण चेतनाशक्ति का ही प्रपंच है, आंख और यन्त्र का नहीं।
SR No.006278
Book TitleBhikshu Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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