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________________ प्रथमः सर्गः यद्यपि मेरे पास न पर्याप्त कुशलता ही है, न नए-नए प्रयोगों का सामर्थ्य ही है और न पद्य रचना का वैसा लालित्य ही है, किन्तु मेरे पास बलवती श्रद्धा है । मैं उस एक श्रद्धा के बल पर इस ओर प्रयत्नशील हुआ हूं । यह सुविदित तथ्य है कि सही मार्ग पर चरण बढ़ाने वाला व्यक्ति कभी भी खिन्न नहीं होता क्योकि वह एक न एक दिन मंजिल तक पहुंच ही जाता है। २१. नाहं यते तदनुयायितयैव किन्तु, शाणावलीढतदगूढगुणानुविद्धः । को वा परीक्षणमृते विबुधः प्रयुक्त, काचे करं कलितकेवलचाकचिक्ये ॥ मैं आचार्य भिक्ष का अनुगामी हूं, इसलिए यह उपक्रम नहीं कर रहा हूं किन्तु अपनी बुद्धि की कसौटी पर कसे गए आचार्य भिक्षु के गुणों से प्रभावित होकर ही ऐसा कर रहा हूं। कौन ऐसा चतुर व्यक्ति होगा जो परीक्षा किए बिना ही केवल चाकचिक्ययुक्त कांच को (मणिरूप में) ग्रहण करेगा? २२. द्वीपोऽत्र जम्बुरयमाक्रमणं विनैव, द्वीपान् स्वतो गुरुगुरूनितरान् सुवृत्तात् । जित्वाऽऽत्मरक्षकतया परितोऽभिसूत्य, तान् शासितुं किमवसत् धृतमेरुदण्डः ।। यह जम्बूद्वीप है । इसने अपने सद्व्यवहार या गोलाकार परिधि से अन्यान्य बड़े-बड़े द्वीपों को बिना आक्रमण के ही जीत लिया है । उन्हें जीतकर अपनी सेवा करवाने के मिस से इसने अपने अंगरक्षक की भांति चारों ओर उनका सूत्रपात कर रखा है। ऐसा प्रतीत होता है कि उन सब पर शासन करने के लिए ही इसने सुमेरु पर्वत के व्याज से दण्ड को धारण किया है । २३. तादृक् सुवृत्तपरिसेवनया हि सिन्धुः, क्षारोऽपि रत्ननिधिरेष ततः प्रमोदात् । वेलाभिरुच्छलति तिष्ठति नाऽपि रुद्धः, सत्सङ्गतिः फलवती जगतीह किं न ॥ ___ जम्बूद्वीप जैसे सद्शील वाले की सेवा कर वह क्षारमय लवण समुद्र भी रत्नाकर बन गया। इस हर्ष से वह वेला के मिष से उछालें भरता है और रोकने पर भी नहीं रुकता । क्या इस संसार में सत्संगति फलवान नहीं होती ?
SR No.006278
Book TitleBhikshu Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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