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नवम : सर्ग:
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हे आर्य ! कहां है वह ज्ञानपूर्विका निर्भीक श्रद्धा ! कहां है वह अर्हत् वाणी युक्त वक्तव्यता ! कहां है वह शिथिलता से अस्पृष्ट आचार ! कहां है वह निस्पृहता ! कहां है स्व-पर संयोग से मुक्ति ! कहां है आचारमूलक ऐक्य ! और कहां है संयम की आराधना !
१८७. पश्यन्तोधपतनमभितो यद्विलोमोपपश्या,
उद्धर्तारः कथमिव वयं शासनेभ्यो भवामः । आवश्यक्यं तनुतनुतमं तन्यतां प्रोच्यतेऽन्यः, किन्त्वस्माकं विपुलविपुलं व्याजतो वर्द्धमानम् ॥
हे आर्य ! जहां चारों ओर से अध:पतन होते हुए भी अधःपतन को ही उत्थान समझा जाए तो ऐसे विपरीतदर्शी व्यक्तियों के शासन से हमें उद्धार की क्या आशा ! हे आर्य ! औरों को भोगोपभोग सामग्री की आवश्यकता घटाने का उपदेश देते हुए भी हम अपनी आवश्यकताओं को दिन-प्रतिदिन किसी न किसी बहाने से बढाते रहते हैं, क्या यह संगत हैं ?
१८८. एवं सत्याः सकलविषया बोधितास्तेन तस्मै,
तस्य स्वान्तेप्यविकलतया सन्निविष्टा विशिष्टम् । सिद्धान्तानां समुचिततया सत्यतामक्ष्य भिक्षोरन्तर्वृत्त्या स्वमनसि महासत्प्रभावान्वितोऽभूत् ॥
इस प्रकार मुनि भिक्षु ने आचार्य जयमलजी को सभी विषय यथार्थ रूप में बताए। जयमलजी के हृदय में विषयों की सचाई अविकल रूप से जम गई । भिक्षु स्वामी की सैद्धान्तिक गहराई को देखकर आचार्य जयमलजी अन्तर्वृत्ति से मन ही मन अत्यधिक प्रभावित हुए ।
१८९. तत्साहाय्यं प्रसृमरधिया दातुमुत्कण्ठितः सन्,
निर्गन्तुं स प्रसित इव तत्पृष्ठ एवाऽजनिष्ट । तवृत्तान्ताद् रघुगुरुवरो दीर्घदुःखोपगस्तद्, व्युद्ग्राहार्थं वितवितथाऽऽनायतः प्रायतिष्ट ॥
जयमलजी भिक्षु स्वामी को सहयोग देने के लिए उदारतापूर्ण बुद्धि से उत्कंठित होते हुए उनके पीछे संघ से मुक्त होने के लिए तैयार हो गए। यह वृत्तान्त सुनकर आचार्य रघुनाथजी अत्यंत दुःखी हुए और वे जयमलजी को बहकाने के लिए झूठे जाल बिछाने लगे।