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________________ २९८ श्रीभिक्षुमहाकाव्यम् १८३. एकाकारः सुकृतविलयो दुःषमान्ते च भावी, सीमाभंगो भयदकलहोऽखाद्यपेयोपचारः। मांसाहारः स्वमृतकनृणां भाविनी दुर्व्यवस्था, तत् किं कार्य निखिलमधुनवाऽऽदृतं श्रेयसे वा ॥ ___ इस दुःषमा (कलियुग) के अन्त में सभी एकाकार हो जायेंगे। धर्म का विलय, मर्यादा का भंग, भयानक कलह, अखाद्य-अपेय का प्रचार, मांसाहार तथा अपने स्वबंधुओं के कलेवर के मांस का भक्षण तथा दुर्व्यवस्था होगी। यह अन्त में होने वाला है, ऐसा सोचकर कोई उन कार्यों को आज पहले ही अपना लेता है तो क्या यह श्रेयस् के लिए होगा ? १८४. उन्मूल्यन्ते सयमनियमाश्छिद्यते शास्त्रवार्ता, प्रोत्थाप्यन्ते शुभसमितयोऽनीतयः स्थाप्यमानाः । सन्मान्यन्ते पिशुनचटवो धिक्रियन्ते सदा, दुःसंसर्गस्तरुणतरुणो हीयते सत्प्रसंगः ॥ आर्य ! आज यम और नियमों का उन्मूलन हो रहा है। शास्त्र की बातों का उच्छेद किया जा रहा है। शुभ समितियों का उत्थापन और अनीतियों का संस्थापन हो रहा है। पिशुन और चाटुकार व्यक्ति सम्मानित हो रहे हैं और सज्जन पुरुषों का तिरस्कार हो रहा है। दुर्जनों का संसर्ग तरुण हो रहा है-बढ रहा है और सत्प्रसंग क्षीण हो रहा है। १८५. यत्रार्हद्वाक्पठनमननश्रावणोद्वाचनानि, तत्र व्यर्थानुचितविकथापापपाठापपाठः । ध्यानस्वाध्याययमसमयः क्वास्ति च स्वात्मचिन्ता, भिन्नभिन्नैर्बहुपरिचयासक्तिसम्पर्कदोषैः ।। आर्य ! जहां पहले अर्हत् वाणी का पठन, मनन, श्रवण और वाचन होता था, वहां आज व्यर्थ और अनुचित विकथा का पापात्मक पाठ होता है। मुनियों को ध्यान, स्वाध्याय, यम-नियम तथा आत्मचिन्तन के लिए कहां समय है ! क्योंकि वे भिन्न-भिन्न प्रकार के परिचय, आसक्ति एवं सम्पर्क दोषों में ही लगे रहते हैं। १८६. सा क्व श्रद्धाऽभयभगवती क्वास्ति वक्तव्यता सा, क्वाचारः सोऽशिथिलितपरो निस्पृहत्वं च तत् क्व । संयोगेभ्यो निजपरनृणां विप्रमुक्तिः क्व सा च, क्वैक्यं शुद्ध सुचरितपुरः संयमाराधनं तत् ॥
SR No.006278
Book TitleBhikshu Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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