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श्रीभिक्षमहाकाव्यम् १९०. एभिः साकं यदि रभसितः सम्मिलिष्यन् भवांस्तद्,
धविश्यं सुचिररुचिरं स्वप्रभुत्वैर्महत्वम् । यौष्माकीणः सहमुनिगणस्तस्य भिक्षोश्च भावी, कृत्स्नं कार्य सहजसहज सन्निविष्टं हि तस्य ॥
रघुनाथजी ने जयमलजी से कहा- यदि आप जल्दबाजी से इनके साथ मिल जायेंगे तो ये अपने प्रभुत्व से आपके महत्त्व को नष्ट कर देंगे। आपके साथ वाले मुनि भिक्षु के बन जायेंगे और इस प्रकार भीखण का सारा कार्य सहज रूप से संसिद्ध हो जाएगा। १९१. व्यक्तित्वं नो कथमपि च ते स्थास्यति विष्टपेऽस्मिन्, . यावज्जीवं परवशगतः काकनाशं प्रणंष्टा । . पृष्टे लग्नाः प्रमुदितमनस्त्यक्तगेहा विनेया, . रोदिष्यन्त्याश्रयविरहिता नष्टनीडाण्डजा वा ॥ - जयमलजी ! ऐसा करने से आपका अस्तित्व संसार में नहीं रह पाएगा। आपको यावज्जीवन भीरूण की पराधीनता में रहकर दुःखपूर्ण जीवन जीना होगा। अपने घर-परिवार को प्रसन्न मन से छोडकर आपके पीछे आए हुए ये शिष्य आश्रयविहीन होकर वैसे ही अश्रुपात करेंगे, दुःख पाएंगे जैसे पक्षी के शिशु शावक घोसले के नष्ट होने पर दुःख पाते हैं।
१९२. नेयं नेयं वरवरतरांस्ते विनेयान् परांश्च,
हेयं हेयं स्वयमयमहो बोभविष्यद् विशिष्टः । श्रेष्ठीपुत्रोद्वहनसमयेऽतीवनिर्बन्धबन्धात्, प्रीत्याऽऽनीताद् यवनयतिसद्वैतपट्टाद् यथैव ॥
भीखनजी आपके अच्छे-अच्छे शिष्यों को अपना बना लेंगे और सामान्य शिष्यों को छोडकर आपके विशिष्ट साधुओं के बलबूते पर स्वयं विशिष्ट बन जायेंगे और आप देखते ही रह जायेंगे, जैसे श्रेष्ठीपुत्र के विवाह पर अत्यंत आग्रह पूर्वक तथा प्रेमपूर्वक लाए गए फकीर के शाही दुपट्टे से सेठ के पुत्र की शोभा तो बढ़ी पर फकीर यों ही ताकता रह . गया।
१९३. एवं तत्तद्वचनरचनाचातुरीचञ्चुरत्वै
श्चिन्ताचान्तो जयमलमुनिस्तत्सहायेऽन्यथाऽभूत् । ज्ञाते सत्येप्यहह वहनं दुर्लभं देहभाजां, तस्मिन् कार्ये रघुगणपतिः कृत्यकृत्यो बभूव ॥