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नवमः सर्गः
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जिसकी इच्छामात्र से ही निश्चित रूप से पाप का बंध होता है तो फिर उसके लिए की जाने वाली प्रवृत्ति से धर्म कब कैसे होगा ? क्या जिनेश्वरदेव की आज्ञा के बाहिर की प्रवृत्ति में धर्म होता है ? आर्य ! आप इस गहन विषय का विवेकपूर्वक गहराई से विमर्श करें।
१६७. यस्मात् साधोर्यदऽनुमतितः साधुताभङ्गभङ्ग
स्तस्माद् धर्माभ्युदयजननं नो हि केषामपि स्यात् । यस्माच्छ यः खलु निलयिनामहतां सम्मतं का, तस्मात् साधोरपि च सुकृतं निर्विकल्पं सकल्पम् ॥
जिसकी अनुमोदना करने मात्र से.साधुता का भंग होता है, वह कार्य किसी के लिए भी धर्म का अभ्युदय करने वाला नहीं हो सकता। गृहस्थ के जिस अनुष्ठान में धर्म है, भगवद् आज्ञा है, वह अनुष्ठान साधुओं के लिए भी निश्चित ही धर्म रूप है तथा कल्प्य है।
१६८. यद् यत्कार्य सममुनिकृते कल्पते नैव किञ्चित्,
तत्तत्कार्ये स्फुटतरमघं केनचित् सृज्यमाने । तत्तत्कृत्यानुगमनपराः सुन्दरा नैव भावा, नो वैषम्यं प्रभवति कदा भावनाकार्ययोश्च ॥
जो कार्य समस्त मुनियों के लिए अकल्प्य हैं, .अविहित हैं, वे कार्य चाहे कोई भी करे, उनसे स्पष्ट रूप से पाप कर्म का बंध होता है। उन कार्यों की अनुमोदना करने वाले परिणाम भी अच्छे नहीं हो सकते, निरवद्य नहीं हो सकते। भावना और कार्य की फलश्रुति विषम नहीं हो सकती।
१६९. यो लुण्टाकोऽपरजनधनं लुण्टयित्वा प्रसा,
भूयो भूयः प्रणयति दयां सा दया कि दया स्यात् ।। नो चेत्तेषां तदननुमतेः प्राणिनां प्राणघातात्, कस्माद् भव्याऽभयभगवती सम्भवेत् सा सभद्रा ॥
जो लुटेरा दूसरे के धन को जबरदस्ती से लटकर, बार-बार दया का पालन करता है (दीन-दुःखियों को धन बांटता है) तो क्या यह दया दया कहलायेगी ? यदि इसे दया नहीं कहा जा सकता तो फिर प्राणियों की अनुमति के बिना उनकी घात करना पंचेन्द्रिय की दया पालने रूप निरवद्य दया कैसे हो सकती है ?