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________________ २९४ श्रीभिक्षुमहाकाव्यम् १७०. तादृक् पुण्ये मुखरितमुखा मौनिनो वा भवन्तो ध्यक्षाध्यक्षेऽरितमभितः षणिकाया वराकाः । भेदच्छेदव्यथनमथनक्लेशतोपद्रवाणि, जंगम्यन्ते गलितशरणाः कम्पते हृत् कथं न ॥ ___ सावद्य पुण्य करने का कथन करना, मौन रहना, प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से बेचारे अशरणभूत छहकाय के जीवों का भेदन-छेदन करना है, उन्हें व्यथित और मथित करना है, उन्हें क्लेश पहुंचाना है, उनको उपद्रुत करना है । ऐसा करते हुए हृदय प्रकंपित क्यों नहीं होता ? १७१. स्याद्वादोऽपि ज्ञपयितुमलं वस्तुशुद्धस्वरूपं, सन्निर्णायी नहि नहि परन्त्वन्तरालावलम्बी। सापेक्षत्वं समुचिततया यत्र पाठो द्विधा वा, स्वस्वेच्छातो भवति यदि तत् तद्धि सिद्धान्तलोपः॥ (कोई यहां स्याद्वाद का सहारा लेता है तो वह अयुक्त है।) स्याद्वाद का सिद्धान्त वस्तु के शुद्ध स्वरूप का अवबोधक होता है। वह सत् का ही निर्णायक होता है। वह त्रिशंकु की भांति अधर में नहीं लटकाता, पर निर्णय तक पहुंचाता है। जहां एक ही तथ्य के लिए आगमपाठ दो प्रकार के हों, वहां सापेक्षता यथार्थ रूप में घटित हो सकती है, किन्तु अपनी इच्छा के अनुसार अपेक्षाएं लगाना सिद्धान्त का लोप करना ही है। १७२. भीत्वा लोकः पतितसमयच्छात्रवज्जायमाना, जैनं तत्त्वं प्रकटयितुमुत्सृष्टसत्त्वा नितान्तम् । स्वेषां श्रीमज्जिनभगवतां रञ्जनं भञ्जयित्वाऽद्य प्रोत्तीर्णा जगति जनतारञ्जने केवलं हा !॥ आज के मुनि ह्रास की ओर अग्रसर समय के छात्र की भांति होते हुए इतने सत्त्वहीन हो गए हैं कि वे लोगों से नितांत डरते हुए जैन तत्त्व विचारणा को प्रगट नहीं कर सकते । वे अपने इष्टदेव की भक्ति को छोडकर केवल जनता के रंजन में लगे हुए हैं। १७३. व्यक्तुं यं सकुचति वदनं किं स सिद्धान्तसारः, कि मर्त्यः सोऽतिऋतसमयाल्लज्जते लोकलिप्सुः । का सा लिप्सा समुचितपथः पातुका घातुका वा, कः सम्पातः किमनुमरणं नो यदुत्थानमेव ॥
SR No.006278
Book TitleBhikshu Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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