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________________ श्रीभिक्षुमहाकाव्यम् १६३. वर्णी वर्णाद् भवति न पृथक् वणिनो वर्णकश्च, कार्य भावाविरहि न तथा कार्यतो भावनं च । तद् द्वैविध्यं फलमिह कथं विद्यते चैककार्याद्, भिन्न भिन्नं भवनकृतयोरायुषोर्बन्धनं किम् ॥ रूपी से रूप और रूप से रूपी कभी पृथक् नहीं हो सकते, वैसे ही भाव-परिणाम से कार्य और कार्य से परिणाम पृथक् नहीं हो सकते। तो फिर एक ही कार्य से दो प्रकार के फल कैसे हो सकते हैं ? एक ही कार्य में परिणाम और प्रवृत्ति से क्या दो प्रकार के आयुष्य का बंध होगा? (शुभ परिणाम से देव आयुष्य तथा अशुभ परिणाम से नरकायुष्य)। १६४. चिच्चाञ्चल्यात् सुकृतिविषयादेति पापे च पापाद्, धर्मे किन्तु प्रमुखविधिना प्रोच्यते दुष्ठु सुष्ठु । नो चेत् सर्वेऽनियतविधयः स्युन शक्येत वक्तुं, कार्य साधं निरघमथवा पौषधापौषधादि ॥ चित्त की चंचलता के कारण परिणाम कभी धर्म से पाप की ओर तथा कभी पाप से धर्म की ओर आते-जाते रहते हैं। किन्तु प्रवृत्ति की प्रमुख विधि के आधार पर ही हम उसको सावद्य या निरवद्य कहते हैं। अन्यथा सारी विधियां अनियत हो जाएंगी। फिर हम किसी प्रवृत्ति को सावध या निरवद्य नहीं कह सकेंगे। फिर पौषध आदि अनुष्ठानों को एकान्ततः निरवद्य या अपौषध आदि अनुष्ठानों को सावद्य नहीं कह सकेंगे। १६५. यावन्ति श्रीजिनवरवचोबाह्यकार्याणि तानि, संवर्तन्ते कथमपि न सद्भावनापूर्वकाणि। तद्वछीमज्जिनवरवचोमध्यकार्याणि तानि । संवर्तन्ते कथमपि न चानिष्टभावादिमानि ॥ वीतराग की आज्ञा के बाह्य जितने भी कार्य हैं वे निरवद्य भावना'पूर्वक हो ही नहीं सकते तथा श्री जिनेश्वरदेव की आज्ञा में जितने कार्य हैं वे सावध भावनापूर्वक नहीं हो सकते । । १६६. इच्छामात्रादपि नियमतो यस्य पापप्रसङ्ग स्तस्मै चेष्टा सुकृतफलदा स्यात् कथं क्वापि कापि । तत् किं श्रेयस्त्रिभुवनविदां शासनाद् बाह्य कार्यमालोच्योऽयं गहन विषयो विक्रमः सद्विवेकः॥
SR No.006278
Book TitleBhikshu Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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