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________________ २८४. श्रीभिक्षुमहाकाव्यम् १३८. षट्कायानामशनवसनैहिसकं पोषयेद् यः, षट् कायानां भवति स रिपुर्घातसाहाय्यकत्वात् । आरम्भाप्तं गृहितनुमतां जीवनं नित्यमेव, यस्तद्वाञ्छेत् स च तदिदमारम्भमैच्छत्तदानीम् ॥ कोई व्यक्ति षट्कायिक जीवों का वध कर, हिंसक को खिला-पिलाकर पोषण करता है तो वह उन जीवों का शत्रु होता है, क्योंकि वह उन जीवों की हत्या का निमित्त है, सहायक है। गृहस्थों का जीवन तो सदा आरंभ-हिंसा से अभिव्याप्त होता ही है। जो गृहस्थ के जीवन की वांछा करता है वह वास्तव में आरंभ-हिसा की ही वांछा करता है। १३९. वस्तुं गन्तुं ननु न बशिनां कल्पते यत्र तत्र, व्याख्यानाऽद्यं रचितुमपि नो कल्पते तत्र तत्र । ' गम्यं नाऽनायतनमृषिभिस्तत्र दोषप्रपोषो, बोधव्यं तद् बहु विवरणं शोधनियुक्तिकादैः॥ मुनियों के लिए जो-जो स्थान निवास करने तथा जाने योग्य नहीं हैं, वहां व्याख्यान के लिए जाना भी नहीं कल्पता। मुनियों के लिए अनायतन में जाना ही महादोष का हेतु है। अनायतन का विशद वर्णन ओघनियुक्ति से जान लेना चाहिए। १४०. येषां दण्डस्तदनुसरणं स प्रमादः समेषा मान्विक्षिक्या तदुपचरणं तत्समुच्छृङ्खलत्वम् । तेषां लेश्या परिणतिमुखाः शुद्धितोऽवाङ्मुखा हि, सिद्धान्ताज्ञा व्यवहृतिपरा सर्वथा राधनीया ॥ जिस कार्य के लिए दंड का विधान है, उसका अनुसरण करना सबके लिए प्रमाद है। तर्क से उसका आसेवन करना पूर्णरूप से उच्छंखलता ही है। उन व्यक्तियों की लेश्या, परिणाम, योग आदि शुद्ध कैसे हो सकते हैं ? भगवद् आज्ञा व्यवहारपरक है। उसकी सर्वथा आराधना करनी चाहिए। १४१. उद्देश्यं स्याच्छुभमुभययोः कर्तृतत्कारयित्रो स्तत्रायासो भवति सुमनेजैनधर्मोपि तत्र । तद् वैषम्यान् न शपथयितुं कल्पते लौकिकत्वात. तत्रैतेष्वन्यतमसुमनोभिश्च नो तत्प्रसिद्धिः ।
SR No.006278
Book TitleBhikshu Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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