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________________ नवमः सर्गः . . . २८३ १३५. संहर्ता चोपहरणकरः क्रायको विक्रयी वा, संस्कर्ता वा खलु विशसिता योनुमन्ताऽऽदकश्च । एते चाष्टौ ननु च मनुना घातका कीर्तितास्तत्, . . . किं चित्रं श्रीजिनवरमते तादृशे सद्विधाने ॥ मनुस्मृति ॥५१ में आठ प्रकार के घातक बतलाए हैं - १. प्राणी को मारने वाला। २. मांस लाने वाला या परोसने वाला। ३. मांस खरीदने वाला। ४. मांस बेचने वाला। ५. मांस पकाने वाला। ६. मरे हुए प्राणी के टुकड़े-टुकड़े करने वाल।। ७. प्राणीवध की अनुमति देने वाला। ८. मांस खाने वाला। यदि लौकिक शास्त्र में भी ऐसा विधान है तो फिर जिनेश्वर के मत में ऐसा सविधान हो तो क्या आश्चर्य ! १३६. वीक्ष्याचारी कथमपि वदेद् हिस्रकान् मारयेति, जल्पाद्धिसा लगति करणे प्राथमे स्पष्टमेव । रागोद्देश्याद्यदि गदति मा मारयैवं हि वाक्याद्धिसैव स्यात्तदपि करणे तत्त्वदृष्टया तृतीये ॥ यदि कोई मुनि हिंसक को देखकर कहे कि इसे मारो, तो इस प्रकार कहने से वह मुनि प्रथम करण से हिंसा का भागी होता है और यदि रागपूर्ण उद्देश्य से कहे कि इसे मत मारो तो वह तीसरे करण से हिंसा का ही भागी होता है । यह तत्त्वदृष्टि का निरूपण है। १३७. संसारेऽसंयतितनुमतां जीवनेच्छा हि रागो, __ मारेच्छा द्विट् शरणतरणेच्छा जिनोक्तश्च धर्मः। एषा श्रद्धा रुचिररुचिरा सर्वथाऽवद्यमुक्ता, धैर्याद्धार्या मुनिप ! भवता निश्चितं तारणारे ॥ विश्व में असंयती जीवों के जीवन की इच्छा करना रागभाव है और उनके मरने की इच्छा करना द्वेषभाव है। संसार-समुद्र से उनके तैरने की इच्छा करना जिनेश्वरदेव का धर्म है। यही रुचिकर श्रद्धा है, यही पाप से सर्वथा मुक्त है और यही निश्चित रूप से पार लगाने वाली है । आर्यवर । आप इस श्रद्धा को धैर्यपूर्वक स्वीकार करें।
SR No.006278
Book TitleBhikshu Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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