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________________ २६ श्रीभिक्षुमहाकाव्यम् इस विश्व में जितने भी बडे-बडे कार्य हुए हैं, वे सारे कार्य चाहे स्वकृत हों या परकृत, महान् कष्ट सहने से संपन्न हुए हैं। मैं अब अपने दिव्य उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन कष्टों को सहन करूंगा और उसी पथ' का वहन करूंगा। कष्टों को सहे बिना किसने अलौकिक आनन्द को प्राप्त किया है ? ११८. दाढ्यं दृष्ट्वा नवसुचरिताकांक्षिणस्तस्य भिक्षोः, सञ्जातोऽथ स्वयमपितदा धीरधीरः समीरः॥ तस्माद् द्रङ्गान् निवृतिनगरं गन्तुमुत्कण्ठितो वा', तत्कालं सोऽप्रतिममहसा शान्तवृत्त्या व्यहार्षीत् ॥ पुनः सद्चारित्र को स्वीकार करने के इच्छुक मुनि भिक्षु की दृढता को देखकर वह आंधी भी तब स्वयं धीमी हो गई। यह देखकर अप्रतिम तेजस्वी मुनि भिक्षु ने तत्काल उस बगडी नगर से शांतभाव से विहार कर दिया, मानो कि वे मोक्ष नगर में जाने के लिए उत्कंठित हो रहे हों। १५९. द्रव्याचार्योप्यथ निजजनान् भ्रामयंस्तस्य पृष्ठे, द्वेष्टुं पेष्टुं तदुचितमतं बम्भ्रमीति स्वयञ्च । सत्यं कर्तुं स्ववितथहठं यत्यमानेन गुर्वी, चर्चाऽऽरब्धा वरलुनगरे भिक्षुभिस्तेन भूयः॥ __ आचार्य रघुनाथजी ने अपने द्वेष के पोषण के लिए तथा भिक्षु के सत्यमत को पीस डालने के लिए अपने भक्तों को उनके पीछे लगा दिया और स्वयं भी उनके पीछे-पीछे घूमने लगे। अपने झूठे आग्रह को सत्य प्रमाणित करने के प्रयत्न में उन्होंने वरलू नगर में भिक्षु के साथ चर्चा करने का महान् उपक्रम किया। १२०. आख्यद् भिक्षु शृणु शृणुतमा मद्वचः सावधानं, पश्येदानी कठिनकठिनं पञ्चमारं यदस्मिन् । नो शक्येरन्नवितुमनघां साधुतां केऽपि पूर्णा, सामर्थ्य संहननमपि तत् क्वास्ति तत्पालनार्हम् ॥ चर्चा के प्रसंग में आचार्य रघुनाथजी ने भिक्षु से कहा- 'अरे !. . . सुनो, मेरे वचन को सावधानीपूर्वक सुनो। देखो, यह महान् कठिन पांचवां आरा है। इस काल में कोई भी पूर्णरूप से मुनित्व का पालन करने में समर्थ नहीं है। मुनित्व की पूर्ण पालना के लिए कहां है वह सामर्थ्य और कहां है वह शारीरिक संहनन ? १. वा इवार्थे ।
SR No.006278
Book TitleBhikshu Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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