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नवमः सर्गः.
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११४. किन्त्वेतस्माद् गुरुवरकृतान्निश्चलो भिक्षुरस्थान्,
नो साफल्यं समुपगतवान सम्प्रदायाधिनाथः । तस्माद् रुष्टोऽरुणितनयनो भीषणो भीषणास्यो, . द्रव्याचार्यो विनिहितसमो व्याजहाराशु रूक्षम् ॥
किन्तु आचार्य रघुनाथजी के हृदयद्रावक उपक्रम से मुनि भिक्षु विचलित नहीं हुए । वे अपने संकल्प में निश्चल रहे, अडिग रहे । असफलता से आहत होकर आचार्य रघुनाथजी अत्यन्त रुष्ट हो गए। उनकी आंखें लाल हो गईं। उनका चेहरा बहुत डरावना हो गया। वे निरपेक्ष होकर वोले
११५. रे रे भिक्षो ! सुकृपण ! कियद्यास्यसि त्वं च दूर
मनाग्ने त्वं तव पुनरहं पृष्ठपृष्ठेऽस्मि नूनम् । नृणां पूरं त्वदनुनितरां यत्र तत्र प्रयोक्ष्ये, दास्ये पादौ तव लगयितुं नैव कुत्रापि किंचित् ॥
'ओ भिक्षु ! तुम कितने अनुदार हो! तुम कितने दूर जाओगे। देखो, आगे-आगे तुम और पीछे-पीछे मैं लगा ही रहूंगा। तुम जहां भ जाओगे, मैं तुम्हारे पीछे सदा लोगों को लगाए रखूगा । तुम्हारे पैर कहीं भी स्थिर हो सकें, वैसे नहीं होने दूंगा।' ११६. तां तद्वाणीं श्रवणविषयीकृत्य दीपाङ्गजेन,'
स व्याख्यातः कथमपि तदा साध्वसान्नो बिभेमि । शान्त्या सोढा समपरिषहान् शुद्धसाधुत्वकामः, काचिच्चिन्ता नहि मम कियज्जीवनीयं जगत्याम् ॥
दीपांगज मुनि भिक्षु आचार्य की उस वाणी को सुनकर बोले'तब तो मैं किसी भी प्रकार के आतंक से भयभीत नहीं होऊंगा। मैं शुद्ध साधुत्व के पालन का अभिलाषुक हूं। जो भी कष्ट आयेंगे मैं उन्हें शान्तभाव से सहन करूंगा। मुझे कोई चिन्ता नहीं है। मुझे संसार में अब जीना ही कितना है !'
११७. यावन्त्येतत् त्रिभुवनतले कृत्स्नकार्याण्युरूणि,
तावन्त्यात्माऽपरकृतमहाक्लेशसाध्यान्यवश्यम् । दीव्योद्देश्यस्तदहमधुना सासहिर्वावहिस्तान्, क्लप्ता केनाऽसुखसहमृतेऽलौकिकानन्दनन्दिः ॥ १. नन्दिः हर्ष, वृद्धि ।