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________________ ७६ श्रीभिक्षुमहाकाव्यम् भिक्षु के प्रत्युत्तर से आचार्य रघुनाथजी की अभिलाषा छिन्न-भिन्न हो गई और वे निराशा का अनुभव करते हुए अत्यन्त खिन्न होकर बैठ गए। अपने गुरु के प्रति मुनि भिक्षु का जो द्रवित करने वाला स्वाभाविक मोह था, उससे भी वे मुनि-पथ से विचलित नहीं हुए। १११. तेनालोच्यस्खलितमनसा यद्दिनेऽत्याजि सद्म, तस्मिन् घन मम च जननी पूर्णवात्सल्यपूर्णा । अत्रासारान् मयि परवशा वाहयामास बाढं, निष्क्रान्तोऽहं तदपि च तदा निःस्पृहो निष्क्रियार्थी॥ भिक्षु ने अपने स्थिर मन से सोचा, जिस दिन मैंने प्रव्रज्या के लिए घर छोडा था, उस दिन मेरी वात्सल्यमयी मां ने मेरे प्रति अत्यंत मोह के कारण बहुत आंसू बहाए थे। पर मैं निस्पृह होकर एकमात्र मोक्ष-प्राप्ति की अभिलाषा से घर से निकल गया था । ११२. तत् किं मूल्यं गुणहतगुरोर्वाष्पवेगापवेण्या, पातिन्या यज्जननमरणाम्भोधिचक्रेऽतिचक्रे । एतद् दृष्ट्वा यदि पुनरिहोद्रेकतः सम्मिलामि, तन्मेऽमुत्र प्रपतति महारोदनं तोदनं च ॥ ११३. एवं ध्यात्वा द्रवितकरणोत्पिञ्जलं' प्राञ्जलं तन्, निर्बन्धं तं निरहरदयं भिक्षुरूर्ध्वज्ञविज्ञः। द्वेषातूर्णं चलति न पुमान् किन्तु रागप्रसङ्गात्, विक्रान्तोपि त्वरितमभितः क्षोभमभ्येति मूर्छत् ॥ (युग्मम्) तो फिर इन गुणशून्य गुरु की वेग से बहने वाली अश्रुधारा का मूल्य ही क्या है ? यह तो जन्म-मरण रूप गहरे समुद्र में डुबोने वाली है। इसको देखकर यदि मैं भावावेश में उनमें पुन: शामिल हो जाऊं तो न जाने मुझे परलोक में कितना रोना पडेगा, कितने कष्ट सहने पडेंगे ? ___ ऐसा सोचकर अत्यंत व्याकुलता और सरलता से किए गए रघुनाथजी के उस हृदय-द्रावक आग्रह से भी मोक्षपथ के ज्ञाता और विवेकवान् भिक्षु विचलित नहीं हुए। द्वेषपूर्ण वातावरण से व्यक्ति शीघ्र विचलित नहीं होता किन्तु राग के प्रसंग से पराक्रमी व्यक्ति भी शीघ्र ही अत्यंत क्षुब्ध हो जाता है, मूढ हो जाता है । १. उत्पिञ्जल:- अत्यंत व्याकुल । २. प्राञ्जल:-ऋजु । ३. निरहरदयः-हृदयद्रावक ।
SR No.006278
Book TitleBhikshu Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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