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नवमः सर्गः
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१२१. वृत्ताधीशस्तदनुसुसमाधायि सद्बोधगर्भ
माचारांगे चरमजिनपैः पूर्वमेवैवमुक्तम् । ये पार्श्वस्था स्खलितशिथिलास्ते तथा वक्ष्यमाणा, नो शक्येरंश्चलितुमधुना संयमे शुद्धरीत्या ॥ ___ सच्चारित्री मुनि भिक्षु आचार्य की बात का तात्त्विक समाधान देते. हुए बोले- 'चरम तीर्थंकर भगवान् महावीर ने आचारांग सूत्र में यह स्पष्ट कहा है कि जो पार्श्वस्थ, मार्गच्युत तथा शिथिलाचारी होंगे, वे ही ऐसा कहेंगे कि इस कलिकाल में शुद्ध रीति से संयम का पालन अशक्य है।
१२२. प्रापत्कष्टं गहनगहनं न्यायवत्तद्वचोभि
द्रव्याचार्यः प्रतिकथयितुं प्राभवन्नैव तत्र । फालभ्रष्टो मृगपतिरिव व्यग्रचित्तस्तदानी, भिन्नां शैली पुनरपि तदालम्ब्य भिक्षु बभाषे॥'
मुनि भिक्षु के न्यायोचित वचनों को सुनकर आचार्य रघुनाथजी अत्यंत खिन्न हो गए और प्रत्युत्तर देने में समर्थ नहीं हो सके । जैसे दांव चूकने पर सिंह व्यग्र हो जाता है वैसे ही आचार्य व्यग्र होकर भिन्न वारशैली में पुनः भिक्षु से बोले१२३. शुद्धं ध्यानं युगलघटिकां संयम पालयेत् तत्,
तस्य प्रादुर्भवति सुतरां केवलज्ञानमत्र । प्रोचे भिक्षुर्यदि च घटिकाभ्यां भवेत् केवलज्ञं, तद् द्वे नाड्यौ श्वसनमपि संरुद्धय तिष्ठामि तद्वत् ॥ .
'इस कलिकाल में यदि कोई शुद्ध ध्यान से दो घड़ी विशुद्ध संयम की पालना कर लेता है तो उसे केवलज्ञान की प्राप्ति हो जाती है ।' रघुनाथजी का यह कथन सुनकर भिक्षु बोले-'यदि दो घटिकाओं के शुद्ध संयम से केवलज्ञान की प्राप्ति होती है तो मैं दो घड़ी तक नाडीतंत्र और श्वसनतंत्र का निरोध कर स्थिर रह सकता हूं।' १२४. पृच्छाम्यत्र प्रभवप्रमुखैऊरपट्टाधिनाथै
स्तावन्तं किं समयमपि सत्साधुता पालिता नो। यत्ते सर्वे सकलसुमतैर्वञ्चिताः सन्त एव, स्वर्गाभोगं सुभगसुभगं भूषयन्तो बभूवुः ॥
'मैं आपसे पूछना चाहता हूं कि क्या महावीर-शासन के अधिकारी... प्रभव आदि प्रमुख आचार्यों ने दो घड़ी का भी शुद्ध संयम नहीं पाला जिससे कि वे सभी केवलज्ञान की उपलब्धि से वंचित रहकर, स्वर्ग सुखों को ही प्राप्त कर सके ! (विशिष्ट स्वर्गों को ही भूषित कर सके ।) .. .