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________________ २५४ श्रीभिक्षुमहाकाव्यम् ३२. अस्मत्तस्तत् सुकृतकथने तत्र तूष्णीकभावे, सत्ये वेतस्तत उदयतः कर्मणां ते वराकाः । - एकाक्षाद्या दलनदहनछेदनादिप्रकारैहन्यन्ते हा ! निबलशरणा धर्मलाभार्थिमूढः॥ ' वैसी प्रवृत्ति में हमारे द्वारा पुण्य कहने पर या मौन रहने पर धर्मलाभार्थी सामान्य लोगों के द्वारा पूर्वकृत पापों के उदय से बेचारे निर्बल शरणार्थी एकेन्द्रिय जीवों का दलन, दहन, छेदन आदि विविध प्रकार से हनन होता है। ३३. पञ्चाक्षाणां वितततरसा त्राणमुद्दिश्य बाह्य, . तत् त्वाक्षाणां प्रशठमनुजः कारितोद्वासनेभ्यः। मिश्राश्रद्धा यदभिमनिता लोकतोऽपि प्रतीपा, यस्माद्दीना अवनविषयाः किंवन्दतीति विश्वे ॥ ..एकेन्द्रिय प्राणियों का भोलेभाले लोगों से वध करवा कर पंचेन्द्रिय प्राणियों के बाह्य त्राण के लिए अत्यन्त पराक्रम किया जाता हैं। यह अपने द्वारा अभिमत मिश्रधर्म की श्रद्धा लोक-व्यवहार से भी विपरीत है, क्योंकि यह लोक विश्रुत लोकोक्ति है--'जो हीन-दीन हैं वे रक्षा के पात्र हैं।' ३४. पुष्णन्त्येके महिममहतो मारयित्वा वराका नेषा वार्ता घृणितघृणिता कीदृशी रौद्ररूपा। तत्र स्पष्टं समभिदधतो मिश्रधर्म च पुण्यं, - तद् रङ्कानां किमिह रिपवो नोत्थिताः स्मो वयं किम् ॥ . बडे और शक्तिशाली जीवों का पोषण करने के लिए छोटे जीवों का वध करना, यह अत्यंत घृणित और रौद्र प्रवृत्ति है। हम ऐसी प्रवृत्ति में स्पष्ट रूप से मिश्रधर्म की प्ररूपणा करते हैं, पुण्य का कथन करते हैं तो क्या हम उन बेचारे छोटे जीवों के शत्रु नहीं बन रहे हैं ? ३५. उत्पन्ना ये गतभवकृतैः पापपुजैः प्रगाढे र्यत्रैकाक्षा दलितदलिताः क्षीणपुण्योपबर्हाः। तद्दुस्थानामशुभनिचयोदोर्णतोऽमा नरौधेजिह्वाशस्त्रैररय इव किं स्मो न मौनाऽस्त्रतो वा ॥ पूर्वभव के प्रगाढ पाप कर्मों के कारण तथा पुण्य की क्षीणता के कारण वे बेचारे अत्यंत दीन-हीन जाति के एकेन्द्रिय जीव बने। उन निम्नश्रेणी के जीवों के अशुभोदय के साथ ही साथ अन्य मनुष्यों की भांति क्या हम भी मौन एवं वाणी के शस्त्र से उनके शत्रु जैसे नहीं बन गए ? १. त्व+अक्ष-एक इन्द्रिय (वाले जीव)।
SR No.006278
Book TitleBhikshu Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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