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________________ नवमः सर्गः २५३ हिंसा आदि में प्रवृत्त व्यक्ति को उसके हित के लिए उपदेश दिया जाए। उपदेश निरर्थक होने पर मौन रहे और मौन अधिक समय तक न रह सके, मौन व्यर्थ जान पडे, तो वहां से उठकर चला जाए। यह शास्त्रसिद्ध क्रम है। ये शास्त्रोक्त तीन प्रकार के समुचित उपाय आत्मरक्षक हैं। यदि पहले उपाय से कार्य सिद्ध हो जाता है तो दूसरे साधन मौन से क्या प्रयोजन ? (निषेधात्मक उपदेश को छोड मौन क्यों रहा जाए ?) २९. धर्माह्वाद्विप्लविकुतुकिभिः प्रत्ययं स्पर्धमान रग्रेऽग्ने तन्निघृणितमहाडम्बरारम्भवृद्धिम् । दृष्ट्वाप्यन्धानुकरणकरान् प्रोझ्य धर्मोन्नति च, के व्याकुर्युविदितरहसो न्यायपक्षोपलम्भाः ॥ धर्म के नाम पर विप्लव, कौतुक एवं स्पर्धा से उत्पन्न दयाहीन आडम्बर एवं आरंभ की जो वृद्धि हो रही है, उसका अंधानुकरण करने वाले व्यक्तियों के अतिरिक्त कौन न्याय पक्षावलम्बी और तत्त्ववेत्ता मनुष्य उसको धर्मोन्नति कहेगा ? ३०. ईदृकच्छद्धाभ्युपगमनतो दानताया दयाया, . मूलोच्छेदो यदमरपुरो मुख्यमार्गात्मकायाः। दानध्वंसः प्रमयविरतेः स्थापितायां दयायां, नष्टा शूका तदिव वधजे स्थापिते दानधर्मे ॥ आर्य ! इस प्रकार की श्रद्धा के अभ्युपगम से तो लोकोत्तर दया और दान का मूलोच्छेद हो जाएगा। हमारे द्वारा स्थापित दया में हिंसा का अवरोध हो तो (माना हुआ) दानधर्म समाप्त होता है और यदि दानधर्म की स्थापना की जाए तो. एकेन्द्रिय आदि प्राणियों की हिंसा होने के कारण दया का अवसान सुनिश्चित है । (अतः दान और दया-दोनों का नाश हो जाएगा।) ३१. पञ्चाक्षाणां समुपचितये नूनमेकेन्द्रियाद्या, . . हन्यन्ते श्रीगुरुवर ! तथा मान्यतोद्घोषणाभिः। .. तस्मात्स्पष्टं जगति महतामेव साहायकाः स्म, तत्तुच्छानां तनुतनुमतां घोरशत्रुस्वरूपाः ॥ गुरुवर ! मिश्रधर्म की मान्यता और घोषणा से पञ्चेन्द्रिय जीवों के पोषण के लिए एकेन्द्रिय आदि जीवों का हनन होता है। इससे यह स्पष्ट है कि जगत् में हम केवल बड़े जीवों के सहायक हैं और छोटे जीवों के घोर शत्रु ।
SR No.006278
Book TitleBhikshu Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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