________________
नवमः सर्गः
२५५
३६. पृष्टे ब्रूमो वयमिह सदा मौनिनः किन्तु तादृक्
सङ्केताद्यैरनिशमसुमन्मारणार्थं प्रवृत्ताः । कृष्ट्वाऽधस्तात् पृथगिह भवामस्तथोरूवताद्यैः, किं नोचिन्त्यं मनसि च मनोहत्य बुद्धया भवद्भिः ॥
जब कोई पूछता है तो हम कहते हैं कि हम ऐसी प्रवृत्ति में मौन रहते हैं । परन्तु वैसे प्रवृत्ति-प्रोत्साहक संकेतों के द्वारा हम निरंतर प्राणियों के हनन में प्रवृत्त रहते हैं तो क्या यह बर्तनों की बडेर से नीचे के बर्तन को खींचकर दूर हो जाने जैसी प्रवृत्ति नहीं है ? क्या यह महाव्रतों से पृथक होना नहीं है ? आपके लिए क्या यह विशेष बुद्धि से गहरा चिन्तन करने जैसा विषय नहीं है ?
.. -३७. मिश्रश्रेयो लपनलुलिता या च जिह्वाऽस्मदीया, , .
नृत्यन्ती किं भवति न शिता तीव्रनिस्त्रिशधारा।. शक्ये तस्याः स्थगनमपि हा ! तैलियन्त्रोपमाना, तस्मात् त्याज्याऽनघकरुणया मान्यतैषा जघन्या.॥ .
हमारी जो जिह्वा यह कहने के लिए चपल है कि मिश्रधर्म श्रेयस्कर है, क्या वह एकेन्द्रिय आदि जीवों के नाश के लिए लपलपाती तीखी तलवार नहीं है ? उपदेश से हिंसा का अवरोध शक्य होते हुए भी मौन रहना, क्या यह कोल्हू के समान नहीं है ? इसलिए इस जघन्य, मान्यता, को छोडकर निरवद्य करुणा को स्वीकार करना चाहिए। . . ३८. हिंसाभ्यः स्यात्कथमपि यदा पुण्यधर्मोपपत्ति
स्तत्तत्राष्टादशकदुरितेभ्योप्यवश्यं भवेत् सा। एनोवृत्त्या यदि च सुकृतं पापपुञ्जः कुतस्त्यो, धर्मेभ्यो वा कलुषजननं भावि किं व्यत्ययोऽयम् ॥
हिंसा से भी यदि पुण्य और धर्म की उत्पत्ति मानी जाए तो अठारह पापों से भी उनकी उत्पत्ति अवश्य' माननी होगी। पापाचरण से यदि पुण्य या धर्म होगा तो फिर पाप किससे होगा ? अथवा धर्माचरण से पाप और पापाचरण से धर्म होना मानना पडेगा। ३९. वस्तुष्वन्येष्वपि शबलता सङ्गता यद्विरुद्धा,
सद्वस्तूनां प्रकृतिरसतो ध्वंसिनी सा विशेषात् । यत् कुल्माषाभिषुत पतिता बिन्दुमात्रा यथैव,
क्षीरं क्षीवं क्षपयतितरां क्षीणकायाप्यनल्पम् ॥ १. कुल्माषाभिषुतम्-कांजी (कुल्माषाभिषुतावन्तिसोम–अभि० ३।७९)।