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________________ नवमः सर्गः ८. पूजाश्लाघामहिममहिमाऽनन्तशोऽनन्तकृत्वो, ___ जीवैरेतैः सुलभसुलभा सङ्गता सङ्गता । किन्त्वार्हन्ती मिलितुमनघा दुर्लभा तत्त्वलिप्सा, नाना तस्याः सृतमपि मनाग नास्य जीवस्य कार्यम् ॥ 'हे आर्य ! इस आत्मा ने अनन्त बार, अनन्त प्रकार से पूजा, श्लाघां तथा महती महिमा को अत्यंत सुलभता से प्राप्त किया है। पवित्र आर्हती. तत्त्व-श्रद्धा की प्राप्ति दुर्लभ है। उसकी उपलब्धि के बिना आत्मा की किञ्चित् भी कार्यसिद्धि नहीं होती।' ९. केषाञ्चित् सा सुकृतमनसा प्राणिघातादिकेषु, पुण्यस्येयं स्फुटसुनयिनां पाप्मनस्तत्र केषाम् ।। मिश्रस्यैषा भवति खलु नो न्यायहीना सदैवं, श्रद्धा वैधा जगति वितता साम्प्रतं कालदोषात् ॥ _ 'कालदोष के प्रभाव से वर्तमान में तीन प्रकार की श्रद्धा प्रचलित १. सुकृत-धर्म के लिए की जाने वाली जीवहिंसा में पुण्य मानने वाली। २. धर्म के लिए की जाने वाली जीवहिंसा में पाप मानने वाली ।। ३. मिश्र-हिंसा में पाप तथा भावों की शुद्धि में धर्म मानने वाली।' है १०. अस्माभिर्वा यदभिमनितं मिश्रतामाननीयं, तत् सिद्धान्तैमिलति न मनाग युक्तिनियुक्तिभिश्च ।. एकोनेहोदिनरजनिवत् पुण्यपापद्वयं यन, न स्यान्नूनं कथमपि मिथश्चैककार्ये विरोधात् ॥ ‘गुरुवर्य ! उपरोक्त तीन प्रकार की मान्यताओं में हम तीसरी मान्यता--मिश्र को मानते हैं। परन्तु वह आप्तवाणी में उपलब्ध नहीं होती और न युक्तियों और नियुक्तियों से ही प्रमाणित होती है। एक ही समय में दिन और रात दोनों नहीं हो सकते । पुण्य और पाप-दोनों एकदूसरे के विरोधी हैं। एक ही कार्य में ये दोनों नहीं हो सकते ।' ११. दातुर्मुक्ताननलपनतो वाक्प्रयोगो ह्यशुद्धः, . शुद्धौ त्वन्यौ यदि च युगपत् किं दयायां तथा न । .. एवं चेत् स्तामपि सदऽसदौ काययोगाऽविशुद्धः, . . शुद्धात् स्वान्ताद् व्रतमघमिहाऽशुद्धकायात् तदानीम् ॥ १. नो- अस्माकम् ।
SR No.006278
Book TitleBhikshu Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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